Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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मजदूरनी

 

मजदूरनी



युग- युग  से अभिशापित, उपेक्षित

अशिक्षित, क्षुधित व्यथित ऋणग्रस्त

जग सम्पदा के अधिकारों से वंचित

अधरों  में  खर  तिनके  को  धरी

पंक - पली ,  दोनों   हाथ खाली

कौन  है यह नारी, जिसके प्राणों में

ताप नहीं,मन का जीवंत प्रकाश नहीं

दे  रही, देश की आजादी को चुनौती


कल्पित  हो  ईश्वर को पुकार रही,कह रही

तुम नित नव-नव रूपों में मुझसे आलंगित

फ़िर भी मैं आकांक्षाओं के मधुपों से वंचित

मेरे  दायें-बाँयें, सामने –पीछे चतुर्दिक रहता

तमसावृत,आँखों को कुछ दिखाई नहीं पड़ती

ज्यों  सूक्ष्म  नभ को तुम करते आलोकित

त्यों  कर दो मेरा भी जीवन मार्ग ज्योतित


क्या  अभाव  की  इस मूर्ति को,इतना भी नहीं पता

इसका आँगन  दैन्य , दुख , विपदाओं  से  है भरा

जीवन इसका आकारहीन, शून्य समान है अनिश्चित

यहां कैसे हो सकता,जीवन सुख का मधुकण एकत्रित





कैसे हृदय  की  उद्वेलित  तरल  तरंगें

सोमरस  से भरे उस जीवन घट

को छू सकतीं,जो अनंत के कोने में हैं रखीं

वर्गों  में  सीमित, यह  छोटी  है आकृति



सिकुड़ी  – सिमटी   हड्डियों  से  चिपटी  इसकी

खुश्क चमड़ी बता रही,धरा कंदर्प से है यह पोषित

चिर वर्षा,  ताप,   हिमकणमें  पलित  यह

अपने  ही  क्षुधा ताप से है सींचित

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