मेरी जीवनाकांक्षा
इच्छा-प्रधान होने के कारण ही मनुष्य को, सभी जीवों में श्रेष्ठ माना गया है ,मगर ये इच्छायें ,सबों की एक जैसी नहीं होतीं ---- कोई डॉ० बनना चाहता, तो कोई इंजीनियर; कोई वैग्यानिक, तो कोई समाज-सुधारक । मैं भी बचपन से अपने मन में यह जीवनाकांक्षा पालती हुई बड़ी हुई, कि जब मैं पढ-लिखकर कोई नौकरी पाऊँगी , तब सबसे पहले अपने गाँव के खंडहर स्कूल का जीर्णोद्धार करूँगी । हमारे स्कूल के पास खाली जमीन तो बहुत थी, मगर स्कूल की इमारत नहीं थी । बच्चे, क्या गर्मी, क्या ठंड और क्या बरसात, हर मौसम में खुले आकाश के नीचे बैठकर अपनी पढ़ाई करने के लिए बाध्य थे । पीने के पानी तक का कोई इंतजाम नहीं था और तो और क्या शिक्षक और क्या विद्यार्थी , सबों को शौच के लिए खुली जगह पर जाना होता था । यही कारण था कि मेरे स्कूल में लड़कियों की संख्या बहुत कम थी और जितनी भी थीं, सब के सब , मेरे घर से मेरी ही बहनें थीं । चूँकि हमलोगों का घर स्कूल के ठीक बगल में था, इसलिए पानी पीने आदि के लिए हमलोग हर रोज घर चली जाया करती थीं ; नहीं तो हमारे लिए भी वहाँ पढ़ना मुश्किल था । इन्हीं सब बातों से व्यथित होकर मेरा मन, तय किया, कि मैं पढ़-लिखकर सबसे पहले अपने वेतन के पैसे से अपने ऐतिहासिक स्कूल की, जो ढ़हकर अतीत में विलीन होने जा रहा है, उसका जीर्णोद्धार करूँगी ; जिससे कि ,जो कठिनाई हमने भोगी, हमारी आने वाली पीढ़ी को नहीं भोगना पड़े ।
मेरे मन-कल्पना में स्कूल की इमारत का चित्र मुझसे अपना खोया रूप पाने के लिए ,मुझे आवाज लगाता रहता था; मैं नित व्यथित जीया करती थी । मेरी चेतना ,उन्हीं कल्पनाओं में मंडराती रहती थी ---- एक बड़ा सा आँगन, आँगन के चारो ओर क्लास-रूम,उसमें सजे हुए बैंच-डेक्स, और वहाँ चहल-कदमी करती हुई गाँव की सारी लड़कियाँ और दूसरी तरफ़ बड़ा सा पुस्तकालय । पुस्तकालय में ऐसी किताबें जिसका उपयोग सार्वकालिक हो, जैसे शब्दकोश , विश्व कोष , प्राचीन इतिहास आदि , क्योंकि हर किसी की यह सामर्थ्य नहीं होती कि हर पुस्तक वह खरीद सके । ऐसी हालत में पुस्तकालय , जो ग्यान का भंडार होता है, उनकी आवश्यकता को बखूबी पूरी करता है वशर्ते उसका सही उपयोग किया जा सके और उनके पाठ्यक्रम से संबंधित लगभग सभी तथ्यों की जानकारी पुस्तकालय से मिलती रहे ।
ऐसे भी परीक्षा देने के उपरांत परिणाम निकलने तक विद्यार्थियों के बौद्धिक मनोरंजन का एकमात्र और विश्वसनीय साथी पुस्तकालय होता है । गर्मियों की छुट्टियों में अपने मित्रजनों से दूर , पुस्तकालय को यदि हम प्रेरणास्रोत कहें , तो यह कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में, पुस्तकों के द्वारा हम जितना किसी को जान सकते हैं,उतना उनके अपने भी उन्हें नहीं जानते । एक कमरे में बैठकर , राम कथा, कालीदास , तुलसी, रहीम ; तो तुलसी के साथ चित्रकूट में उद्विग्न मन को शांत करने वाले अयोध्यापति श्रीराम के साथ भाई लक्ष्मण का दर्शन, यह सब हमें पुस्तकालय ही करा सकता है ।
आखिरकार बरसों इंतजार के बाद वह दिन भी आया, जब मैं स्कूल-कॉलेज की डिग्रियाँ हासिल की, लेकिन कहते हैं न’ होइहैं वही, जो राम रची राखा’ पूरी तरह मेरे साथ चरितार्थ हुई ।
अपनी इच्छा के अदम्य प्रयत्न के बावजूद भी, मेरी जीवनाकांक्षा धरी की धरी रह गई । मेरा दृढ़ निश्चय व अक्षय संकल्प, भाग्य के सामने सभी पराजित हो गये । मेरे मार्ग में शादी ,पर्वत बनकर खड़ी हो गई: मेरे उमंगों के लहलहाते गुलशन झुलसकर, रेगिस्तान में बदल गये । मेरी कार्यक्षमता, कार्यकुशलता तथा कार्ययोग्यता के ग्यान की रोशनी , मेरी जीवनाकांक्षा के पथ को आलोकित न कर सकी ।
कहते हैं, इतिहास में उसी व्यक्ति का नाम गौरव से लिया जाता है जिसकी सिद्धि का आधार आत्मविश्वास होता है , क्योंकि आत्मविश्वास का क्रियात्मक रूप भी साहस है । अधिकतर देखा गया है, कि केवल साहस और शक्ति धन से नहीं मिलता और धन के बिना 90% लोगों की मनोकांक्षा अधूरी रह जाती है , क्योंकि मन की तीव्र कामना, उत्साह और एकाग्रता , मनोद्देश्य की पहली सीढ़ी बन सकती है , पर उद्देश्य पूरी नहीं कर सकती और उद्देश्य प्राप्त कर लेने से जीवनाकांक्षा पूरी नहीं हो जाती । धनविहीन के पास पैर-हाथ रहने के बावजूद ,वे निपंगु जीवन जीते हैं और एक निपंगु पहाड़ नहीं चढ़ सकता ।
श्रम, प्रयत्न और साहस रेगिस्तान में नदी तो बहा सकते हैं, लेकिन ऐसे उस गाँव में जहाँ लोगों को दो वख्त की रोटी नसीब नहीं होती, वे स्कल की इमारत की बात कैसे सोच सकते हैं ? जब कि वहाँ लोग कुछ पैसे के लिए अमीरों का ऋणी होकर नारकीय जीवन बिता रहे हैं । समर्थों की दया पर जीने वाले ये ग्रामीण, ये इतने पैसे कहाँ से लायेंगे , जो स्कूल की इमारत के लिए दान दे सकें । इसलिए आधे से अधिक लोग यहाँ अशिक्षित हैं, अंधविश्वास के शिकार हैं । उनका मानना है, बेटियाँ पढ़-लिखकर बिगड़ जायेंगी ; उनके लिए घर ही एकमात्र सुरक्षित जगह है । हमें स्कूल नहीं चाहिये , लड़के दूसरे गाँव जाकर अपनी पढ़ाई कर लेते हैं । ऐसी स्थिति में मेरी जीवनाकांक्षा आरम्भ होने से पहले ही खत्म हो गई । मेरा प्रयत्न, साहस और उत्साह , तीनों मिलकर भी, अतीत के गर्भ में समा जा रही, अपने स्कूल को अपनी जीवनाकांक्षा के सहारे बचा न सकी । आज स्कूल की जगह , वहाँ टूटी-फ़ूटी कुछ ईंटें पड़ी हैं, जो कभी होने की कहानी चीख-चीख कर बता रहा रही हैं ।
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