नदी ! तुमको मूर्च्छा क्यों नहीं आई
ओ नदी ! स्रोतस्विनी ! पवन से बिन विचारे
काँटों- कुसों ,खंदक- खाइयों से बहनेवाली
धरा, पवन ,गगन ,वन, तृण तरुओं पर
अभिनव की विभा –सी छाई रहने वाली
देखी जब तुमने ,निष्ठुर पतझड़ को आकर
तुम्हारे तट पर खड़े ,विधु के वैभव को,अपने
पलकों पर जोग रहे वनकुसुमों को झकझोड़ते हुए
तब तुमको मूर्च्छा क्यों नहीं आयी
एक- एक कर सभी धरा धूलि में खो गये
तुम विवश लाचार शिशु सी,देख मुस्कुराती रही
क्या तुमको पता है ,कितने भँवरे
मृदु मलयज से अपना मसृण बाल
लहराये, आये यहाँ कि पीउँगा
नव अधरों की मधुमय प्याली
मगर सभी अंतराग्नि लिये प्यासे लौट गये
देखा जब उन्होंने दहन खड के पत्तों सी
हवा में उड़ रही चम्पा की डाली
जो तुम चाहती, तुम्हारे ममत्व की छाया में
वन- वन में उठा रूप का ज्वार ,जो
सिहर-सिहरकर लाता, वसुधा के यौवन में उभार
रह सकता था, सुरकुल की शुचि प्रभा सी बरकरार
िसलिए कि तुममें छुपा हुआ है,देवों का आशीर्वाद
तुम शाश्वत ईश्वर के अंतर,ऐश्वर्य की हो देवी
तीनो लोक को एक सूत्र में बाँध रखने वाली
हे देवी तपस्विनी ! तुम जो ठान लेती
महानद – सी बिछी रेत, रसमय होती
इसके भी जड़-कणों से, जन मंदिर की
मंगलमय ध्वनि उठकर ,अम्बर में गुंजती
रजत झांझ से तरुदल बजते
स्वर्ग कानन में बन रहे, जो माधवी कुंज
वहाँ नहीं बनकर,इस तरुणी आनन में बनते
तब वरुण देव भी विस्तृत करता अपना वक्षस्थल
पत्तों में झंकृत होता,सुर वीणा का मधुर स्वर
मन .प्राण ,देह इच्छाओं का पूरा होता हर सपना
तरुओं का हरित अंधकार, प्रकाश संग आँख –
मिचौली खेलता, जो हिम-कण उड़त फ़हर-फ़हर
त्यों, हरसिंगार झड़ते यहाँ झड़ – झड़
दिवा-रात्रि योगिनी –सी जागती ,रहती सचेतना
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