नैतिकता भर रही चीत्कार
जब देखती हूँ मैं, जग-जीवन में, फैलता अनाचार
आदर्शों की मूर्ति कुत्सित, नैतिकता को भरते चीत्कार
तब संक्रांति-काल की छायाएं, आँखों के सम्मुख
नाचने लगतीं, लगता हम जिस सभ्यता में
जी रहे हैं अब वह शीघ्र मरने वाली है
तभी काम, क्रोध, मद, लोभ भर रहा अट्टहास
रौंद रहा मानव-मानव की आत्मा को
माली मरोड़ रहा फूलों की डाली को
पिता लूट रहा बेटी की लाज
बदल रहा मानव, बदलता जा रहा
धरणी काआनन, बदलता जा रहा समाज
अब भूत सम्यता का हो रहा प्रचार प्रसार
सूख चला मानव का आनंद उच्छ्वसित
शक्ति-स्रोत, रुक गया जीवन विकास
बर्बर युग की ओर बढ़ रहा मनुज का कदम
कहता, मिथ्या है जग, मिथ्या है ऐसा जीवन
सभ्यता-संस्कृति, न्याय-विचार, मनुज के
कदमों की बेड़ियाँ हैं जो निज कदमों पर मनुज को
चलने नहीं देतीं, रखने नहीं देतीं स्वतंत्र विचार
हम अशांत, लाचार जीते जीवनपर्य॑त
उठा नहीं पाते, अपनी आत्मा का भार
अबोध नदिया-सी बहते रहने से तो अच्छा है
हम अपने संग लेकर बहें, ज्वलनशील अंतर
सभ्यता से बंधे मनुज का प्राण आकुल जीता
प्राणों का दल हर पल झर-झर कर झड़ता रहता
प्रणय की अमर साध से सदैव दग्ध रहता
तम के छाया भार से उर काँपता रहता
सभ्यता और संस्कृति से बंधा मनुज
बड़ा ही संयमी, सुधा तृप्त होता, जो
दूसरों के क्षुब्ध उच्छवसित प्राणों के
उन्मद सागर को शासित नहीं कर सकता
मर्यादा का सेतु बाधा बन आगे खड़ा हो जाता
आदर्शों के ये मूर्ति-पूजक, भू-लूंठित हो रहे
अपने जीवन की ओर ध्यान नहीं देते
आदशों का विचुम्बित शिखर टूटकर
धरती के अंतर को क्षत-विक्षत न कर दे
इसका पूरा-पूरा ध्यान बनाये रखते
स्वप्न लोक में भी जाकर, सभ्यता की
डोर को दोनों हाथों थामे रखते
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