Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

नारी जीती विवश लाचार

 


                      ------- डा०  तारा सिंह


शून्य  से निकली वृतहीन कली को देख

धरती  से आकाश तक,नर ने खींची रेख

कहा, यह  पुष्प  नहीं है श्रद्धा का सुमन

यह  तो  है  पुरुष  चरणों  का  उपहार

जिससे  लोट  लिपट खेलता आया जग

जब दिखा,तन का पिंजर त्वचा सीमा से

बाहर  निकला जा रहा, तब घर के कोने

में  कंपित  दीपशिखा –सी स्थापित कर

बाहर  से  बंद  कर दिया  घर का द्वार


विडंबना ही कहो,स्वयं प्रकृति कही जाने वाली

नारी के संग,विधु ने किया यह कैसा खिलवाड़

मानवी  योनि  में  जनम देकर भी नारी को

दियानहीं मानवी  गौरव  का  अधिकार

कहा  नव-नव  छवि से दीप्त, कामना की यह 

मूर्ति ,जिसमें केंद्रीभूत सी है साधना की स्फ़ूर्ति

नर के स्पर्श   से  पूर्णता  कोपायेगी

वरना  सह  न  सकेगी  सुकुमारताका भार



जब  कि  वीरांगनाओं  की  वीरगाथा से

समय- सागर  है  भरा  हुआ, मनु  की

सतत  सफ़लता  कीविजयिनी  तारा

कभी सीता,कभी सावित्री,कभी द्रौपदी,कभी

अहल्या,  कभी  लक्ष्मीवाई , कभी  बन

पद्मिनी ,जीवन  की  आहुति  देती आयी

है  आज  भी  थार  की रेत, पद्मिनी के

जौहरकाशोलाभभकरहा


पुरुष  इंद्रियों  को  अपने  हृदयकी घनी

छाँह में  थपकी दे-देकर, सुलाने वाली नारी

आँख,  काननासिकात्वचापाकर  भी

निर्जीव, गूँगी प्रतिमा-सी,नर द्वारा निर्मित

धूप- छाँह  की  जाली  ओढ़े  रहतीखड़ी  

जब  कि  वह  जानती है, देह- आत्मा के

बीच की जो खाई है,उस पर मस्तिष्क प्रभा

का पूल संयोजित कर किया जा सकता पार

फ़िर भी देह - धर्म को छोड़, सुनना चाहती

नहीं  अपनी  अंतरात्मा  की पुकार, सोचती

नवीण  सचेतना  उदित  करना है निराधार

कहती सदा से शिशु के स्वरूप ईश्वर को

दुनिया  में  जनम देकर लानेवाली नारी

केवल अपना मातृ धर्म को नहीं निभाती

बल्कि, पुरुष  भाग  का  भी ढ़ोती भार

देव- दानव  मनुष्यों  से  छिप-छिपकर

जिस  शून्य  में  ईश्वरलेता  आकार

वही नारी दुनिया में जीती विवश लाचार

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ