Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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नव आषाढ़

 

नव आषाढ़



नव आषाढ़ का,नव गर्वित बादल को

देख, प्यासी  धरती  कर उठी पुकार

बरस-बरस रे बादल, तू जितना चाहे

मगर उमड़-घुमड़कर, गरज-गरजकर

ग्रीष्म शोषित,पीड़ित धरा मानव की

नग्न व्यथा पर,मत कर इतना प्रहार

कि  बुझजाये मृत्ति का अनल

पड़ा  रहेपंचभूत  का भैरव क्षार 


तेरे पास क्या कुछ नहीं,इन्द्र की सत्ता है

जो  तीनो  लोक कादुखहर्ता है

फ़िर  कौन सी बात तुझको  साल रही

जो तू  कायरों  सी  बात  करता  है

तू  जब  चीखता है,तेरी चीख से धरती

काँप उठती  है, आसमां दरक जाता है

लगता  है ,शीघ्र ही तेरी  ज्वाला  में

जलकर यह  मिटने  वाला  है  संसार

तभी  अनंत  में काल जलधि सा लहर 

बनाकर, हलचलकर रहा आषाढ़


ऐसे तू अगर चाह रहा,कि स्वप्नों के

पद्मछत्र  सा, जगा रहे मनस साकार

ज्यों  सलिल परपंकज के पत्र,त्यों

चेतना  पररहे जीवनका भार,तो

केवल शब्दों की स्वर-साधना से,जग

जीवन  काहोनेवाला  नहीं उपकार





तेरे  गर्जन की सार्थकतातब  होगी

जब  तूजग-जीवन की विशृंखलता में 

भरदेगा,  शोभासिंधुकी ज्वार

तब  निज कंपन  से सिहर- सिहरकर

तप्त बालुका में करने लगेगा जीवन संचार

रिक्त  हो रही  डालियोंमें रक्तपूर्ण

मांसल  होगी,  ग्रीष्म  पीड़ित   ,शोषित

जन  कह  उठेगा,   मर  रह  रे आषाढ़


तुझ  पर  है अवलंबित,जग का रूपांतर

तू  कर्म से मुक्त,स्वर का पंख मत मार

करना  चाहता अगर  तू जग का उद्धार

पहले  तू जनहित, निर्झर का भर भंडार

फ़िर जन-जन के मनोनभ में कर विहार

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