नव आषाढ़ की बूँद सी
पथहीन नभ से उतर आता
कल जब तुम मेरी कविता में
आँचल संभालती ,शीत स्निग्ध नव
रश्मि छिड़काती, प्रीति सवाल लिये
नव आसाढ़ की पहली बूँद सी
शब्द बन टप – टपकर टपक रही थी
सच मानो, अक्षर - अक्षर फ़ूल-
फ़ूलकर , पंक्तियों की पल्लवित
डाली पर, चिड़िया सा चहक रहा था
शीतल पवन पुलकित हो,उद्गीथ गा रहा था
कल्पना के भुवन में चतुर्दिक
तुम्हारा ही रूप हँस रहा था
सर्वत्र केन्द्र बन तुम झलक रही थी
तुम्हारा किसलय अधर ,जिस पर
स्वयं मदन नाच रहा था, मानो
या न मानो , ऐसा रहस्यमय रूप
त्रिभुवन में मैंने और कहीं नहीं देखा था
तुम ही सोचो,शब्द फ़ूटने लगे
किसी सुमुख पुष्पों से और
लगे गूढ़ गहन चिंतन करने
तब क्या दशा होगी किसी की
देख,वही हाल मेरा हो रहा था
आँखों के तिल में सागर समा रहा था
जब ,तुम्हारा पाँव जवानी के व्यथा
भार से बिछल-बिछलकर चल रहा था
लेकिन पड़ी समय की होड़ बीच जब
कोई काँटा,तुम्हारे तलवे में आ चुभा
और तुम खीच काँटे को तलवे
से निकाल रही थी, तब मेरा खून
फ़ट-फ़टकर पानी बन बहे जा रहा था
मगर कल होगा क्या इन्साफ़
जीवन को और कर दे न खराब
तुमको छूने से मैं डर रहा था
तभी जवानी की तरुण टोलियों ने
आकर मुझे ललकारा ,कहा
रोज झाँकते तिमिर में सुविकसित
वृत्तहीन ,अनमोल कली को छूने
जब गिरी घायल हो पंखहीन
खगी सी , तुम्हारे आँगन में
तब उस लाचार पर तुझे जरा भी
दया नहीं आई , तू दूर खड़ा
दाँतों तले उँगली दबाये देखता रहा
पंचाग्नि बीच व्याकुल हो,जलता रहा
मगर मैं कैस उसे बताता
कि आग बन घूमती-
फ़िरती मेरे नस -नस में
वशीभूत हो,कभी वह ,कभी
मैं रहता उसके वश में
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