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निर्गुण महाकवि कबीरदास

 

निर्गुण महाकवि कबीरदास

कबीर एक महान क्रांतिकारी व्यक्तित्व का नाम है । मध्यकाल के आरम्भ के तीन कवियों में विद्यापति और जायसी के साथ आता है । कदाचित ये तीनों समकालीन कवि थे , मगर तीनों की भाषाएँ अलग-अलग थीं । यही कारण है , ये लोग एक दूसरे के काव्य से परिचित नहीं थे । चूँकि कबीर ने भी कुछ अन्य संतों की तरह मसि-कागद का स्पर्श नहीं किया था, जैसा कबीर ने स्पष्ट ही कहा है----
’’ मसि कागद छूयो नहीं’
कलम गहि नहीं हाथ ” ।
इसलिए व्यवहारिक दृष्टि से उनकी रचनाओं में स्थिरता या शुद्धता को खोजना या भाषा विवेक की आशा व्यर्थ है । कबीर प्राय: उपदेश करते हुए रमते रहते थे या किसी स्थान पर जम जाते थे और वहीं से अपना मौखिक उपदेश देते थे । उनके अनुयायी ने ही उनकी वाणियों को गाते-गाते संग्रह किया । कबीर की जन्म-तिथि को लेकर कवियों और इतिहासकारों में थोड़ी मतभेद रही है । रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार कबीर का जन्म सं० 1456 मानते हैं; जो कि कबीर चरित्र बोध के अनुसार यह ज्येष्ठ शुक्ल 15 को पड़ता है। उनकी आयु 120 वर्ष की कही जाती है ।
मगर आ्धुनिक विद्वान इतनी बड़ी आयु पर विश्वास नहीं करते हैं । कवीर ने अपना काशी में प्रकट होने का तथा रामानंद का शिष्य होना स्वीकारा है ------
“ तू ब्राह्मण मैं काशी का जुलहा
बूझहु मोर गियाना ।“
और
“ काशी में प्रकट भये हैं, रामानंद चेताये । “

निर्गुणमार्गी संतो पर जब हम विचार करते हैं , तब यह धारणा स्पष्ट हो जाति है, कि कबीर उदय के समय अपभ्रंश भाषा, जनभाषा नहीं थी
ऐसे अपभ्रंश में बहु काल तक रचनाएँ होती रहीं, पर उन रचनाओं को जनता में , कभी विशुद्ध क्षेत्र की जनता में बोली नहीं जाती थीं । कबीर ने राम और रहीम , केशव और करीम को एक मानकर , धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर लड़ने वालों तथा दूसरों के धर्म से अपने धर्म को ऊँचा मानने वालों को खूब फ़टकारा ---- मनुष्य को मनुष्य से धर्म के नाम पर अलग करना गुनाह है, सब मनुष्य समान हैं और कहा------
“ अल्लाह एकै नूर उपजाया, ताकि कैसी निंदा
ता नूर थे,सब जाग किया, कौन भला, कौन मंदा ।“
“विगत -विगत के नाम धराये
यक माटी के भाँडे ।“
उन्होंने मुल्ला और ब्राह्मण, दोनों को लताड़ा , कहा-------
’ वे हलाल, वे झटका मारे
आग दुल्हन घर लागी ।’
कबीर निर्गुण राम के उपासक थे। भगवान राम के विषय में उनका यह मत प्रचलित था-----
’ दशरथ –सुत तिहुँ लोक बखाना
राम नाम का मरम है आना ।’
कबीर ने गुरु की महिमा उस प्रकार गाई है ; उनके अनुसार गुरु के द्वारा प्रदत्त ग्यान के बिना ’ मनुष्य का कल्याण नहीं हो सकता । उन्होंने कहा है------
’ गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ पाय
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो मिलाय ।’
कबीर का मत है, संतोष , नम्रता, सत्य, सत्संग, समता और विवेक से ही आत्मा का उद्धार हो सकता है । हिंदी-क्षेत्र में भक्ति आन्दोलन के पूर्व सबसे अधिक प्रभावशाली धार्मिक सम्प्रदाय गोरखपंथी नाथ योगियों का था । कबीर ने बार-बार इस सम्प्रदाय के जोगियों की चर्चा की है और गोरखनाथ का भी उल्लेख किया है । लगता है, उस काल में सिद्धियों और चमत्कारों के कारण हिंदी क्षेत्र पर गोरखपंथियों का सबसे अधिक प्रभाव था । कबीर को, गोरखपंथ से विरहित होने के कारण यह पंथ पसंद नहीं था । गोरखपंथ सिद्धान्तत: शैवमत से सम्बंध, हठयोग से पुष्ट सिद्धियों में विश्वास करने वाला मार्ग है ।
निर्गुण मार्ग में कबीर की सबसे महत्वपूर्ण देन है--- भक्ति का प्रेममूलक भक्ति का योग । भक्तिमूलक योग के सबसे बड़े प्रचारक कबीर हैं, इस बात को उनके समकालीन सभी संतों ने स्वीकारा । कबीर रामानंद के विधिवत शिष्य हुए या नहीं, इस बात का पुष्ट-प्रमाण नहीं है मगर उन्हें ही वे गुरु मानते हैं । कबीर के पदों को ’गुरुग्रंथ साहब’ में स्थान देकर उनके महत्व को स्वीकारा गया ; शुक्ल जी के मतानुसार कबीर को ग्यान मार्गी मानना आवश्यक नहीं । शुक्ल जी ने उन्हें ग्यानाश्रयी शाखा में स्थान दिया है । नानक, कबीर के भजन किया करते थे , और उनके सिद्धान्तों पर विश्वास करते थे । सबने उनको भक्त के रूप में स्मरण किया है ; ’ भक्तमाल’ का यही मत है ।
कुछ विद्वानों का यह मानना है, बबीर जुलाहे थे । इसमें कोई मतभेद नहीं, लेकिन उनके पूर्वजों का सम्बंध हिन्दुओं के ’ जोगी पंथ’ से था, जो कि मात्र अनुमानाश्रीत है । इसलिए कुछ विद्वानों का मत है कि निर्गुण मत में कबीर का झुकाव इस्लाम के प्रभाव से हुआ ; क्योंकि इस्लाम निराकार ( खुदा ) को मानता है , पर कबीर का राम , इस्लाम का खुदा नहीं ; उपनिषदों का ब्रह्म है । उनका राम खुदा की तरह दुनिया का कठोर शासक नहीं, वह घट-घटवासी , सर्वव्यापक, अविनाशी परम तत्व है । कबीर ने अपने उपदेश को स्पष्ट शब्दों में ब्रह्मविचार कहा है ।
कबीर मांसाहार के कट्टर विरोधी थे । वे न तो मुहर्रम करते थे, न ही रोजा रखते थे । केवल जुलहा के घर में पलने से वे मुसलमान नहीं हो गये । वे हृदय से हिंदू थे, विश्वास से हिंदू थे । वे प्रेममूला भक्ति में निष्ठा रखने वाले सच्चे योगी थे । वे न मुसलमान हैं, और न हिंदू । प्रेमतत्व की भक्ति जैसा मिश्रण वेदान्त-तत्व के साथ की ”बाणी” में मिलता है, वैसा उनके पुर्व भारतीय साहित्य में नहीं मिलता । कबीर के बाद जायसी आदि प्रेमाख्यानक कवियों में उस दिव्य प्रेम की अभिव्यक्ति भी अत्यन्त मार्मिक है, पर वह धारा स्पष्टत: सूफ़ी सिद्धांत से प्रभावित है । जायसी ने कबीर को नारद की भक्ति –परम्परा में माना है ।
कबीर ने ब्रह्म को ही ’राम’ नाम दिया, और उसकी उपासना भक्ति-प्रीति अर्पित करके की । कबीर ने अपने प्रभु के लिए केवल एक उर्दू –शब्द का प्रयोग किया है, वह शब्द है,’ साहेब ’; पर इसी शब्द को आधार मानकर उन्हें मुस्लिम मान लेना ठीक नहीं है, बल्कि वह काल मुस्लिम काल होने के कारण यह शब्द , आमजनों में काफ़ी प्रचलित हो चुका था । तुलसीदास जैसे कवि भी इस शब्द का प्रयोग करने में सकुचाये नहीं । ब्रह्मानन्द के लिए कबीर ने रामरस का प्रयोग किया है, जिससे छककर भक्त मदमत्त बना रहता है । इस रस को कबीर ने महारस कहा है -----
छाकि परयो आतम मतिवारा
पवित राम रस करत विचारा
हरिरस पीया जानिये जे ,कबहूँ न जाई खुमार
मैं मंता घूमत रहे नाही तन की सार
आठहू पहर मतवाल लागी रहै ,आठई पहर की छाँक पीबै ।
आठहू पहर मस्ताना माता रहै, ब्रह्म की घोल में साध जीबै ॥

कबीर ने भक्ति तत्व जयदेव, नामदेव में और स्वामी रामानंद के उपदेशों में पाया । मध्यकालीन इतिहास बताता है, कि रामानंद जी अपने समय के सबसे बड़े भक्ति- प्रचारक थे । बाद में भक्ति- मार्ग के अनेक प्रचारक हुए ; जिन प्रचारकों के कठिन मिहनत की बदौलत भक्ति मार्ग ,दक्षिण से उत्तर की ओर आया । इतने बड़े और तेजस्वी प्रचारक रामानंद , के शुद्र और नीच जातियों को भी भक्ति की दीक्षा देते देखकर कबीर रामानंद की ओर आकृष्ट हो गये । कबीर में बचपन से ही धार्मिक संस्कार प्रकट हुए , वे हमेशा आध्यात्म साधना में लीन रहते थे । आध्यात्म की उनमें गहरी और सच्ची प्यास थी । इस प्यास को बुझाने के लिए उन्होंने सत्संग किया । शायद जैसा कि अनुमान है, कि इन्हीं सत्संगों की वजह से वे सिद्धयोगियों के सम्पर्क में आये , लेकिन शीघ्र ही वे उन योगियों में दिव्य प्रेम या भक्ति का अभाव देखकर अतृप्त हो गये ।
रामानंद के कुल बारह शिष्य थे, जिनमें कबीर को छोड़कर बाकी सभी हिंदू थे । रामानंद और कबीर के मणिकर्णिका घाट पर मिलने की कहानी से यह तो, दीखता है कि कबीर के चरण पकड़ लेने के बाद भी , रामानंद ने कबीर को विधिवत गुरुमंत्र नहीं दिया । कहा जाता है कि रामानंद राम जपते-जपते ,रोज की तरह ब्रह्ममुहुर्त में सीढ़ी से उतर रहे थे । अचानक उनके पादुका का स्पर्श , सीढ़ी पर पड़े एक शरीर से हो गया । यह कबीर की गहरी श्रद्धाभक्ति ही है, जो इन्होंने इस रूप में भी अपने इष्ट गुरु को पाकर, उनके ऋण को ही स्वीकार किया । रामानंद ने शुद्रों को भी शिक्षा दी । उनके शिष्यों में रैदास ( चमार ) , सेना ( नाई ) थे । कबीर पंथ में भी रामानंद का गुरु होना स्वीकृत है । स्वयं कबीर ने लिखा है -----
काशी में हम प्रकट हुए, रामानंद चेताये ।
समरथ का परवाना लाये,हंस उबारन आये ॥
काशी में कबीर ने प्रकट होने की बात तो कही, लेकिन जन्म होने की नहीं । ’रामानंद चेताय” का अभिप्राय जान पड़ता है, कबीर को रामानंद से पूर्व आध्यात्मिक चेतना से पूर्ण संतोष नहीं था ।
वे दशरथ पुत्र राम को अधिक महत्व नहीं दिये लेकिन ब्रह्म के निर्गुण रूप को वे राम के रूप में जानते थे । अत: कबीर विशिष्ट प्रकार के रामभक्त थे ; भक्त का आदर्श उनके अनुसार सती नारी है । सती नारी जिस तरह पति को अनन्य भाव से एकनिष्टः होकर भजती है , उसी पवित्र भाव से भक्त को प्रभु से प्रेम करना चाहिये । कबीर अमृतत्व का उपदेश देनेवाले कवि अमरलोक के संवाद वाहक थे । उनका काव्य असत से सत की ओर , मृत्यु से अमृत की ओर ले जाने वाला है । वे ’ प्रेम के ढ़ाई आखर ’ का ग्यान पाये थे । उनका मानना था , यह ग्यान ग्रंथि खोलने से नहीं होता; पोथी की थोथी विद्या अपरा विद्या है । प्रमाण में उधृत किया है ----
पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुऐ,पंडित हुए न कोय ।
ढ़ाई आखर प्रेम की, पढ़े सो पंडित होय ॥
कबीर, कृष्ण की विरहणी गोपियों की भाँति अपने इष्ट के प्रेम में तन्मय होकर अपने को प्रिया मानकर “पिया’,’पिया’ पुकारने लगते हैं , तो लाल बन जाते हैं । वस्तु जगत में कबीर पुरुष हैं , भाव जगत में नारी; इसी से कबीर लिखते हैं ----
’ लाली मेरे लाल की, जित देखूँ चित लाल
लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल ॥’
भावावेश में कबीर ने अपने को प्रिय पत्नी के रूप में , खुद को कल्पित किया । वह अपने को अविनाशी दुल्हा की,दुल्हन अनुभव करते हैं । कबीर, राम के साथ अपने विवाह की भावना करते हैं । रामदेव के साथ भाँवर होगा, शरीर के सरोवर ( मानस ) की वेदी पर विवाह मंत्र का उच्चारण होगा । जिस आध्यात्मिक विवाह का विशद वर्णन कबीर ने किया है , पंचतंत्र बाराती बने हैं । पहले तनरति फ़िर मनरति, सुरति, निरति ; इस प्रकार अविनाशी पुरुष से कबीर का व्याह होता है । कहते हैं -------
’ हरि मोरा पिऊ, मैं हरि की बहुरिया ’
कबीर, एक नारी जिस तरह यार में अनुरक्त होने पर संयोग के लिए छटपटाती है, वही विकलता उनकी इन पंक्तियों में है ----
हौं बारी मुख फ़ेर पियारे
करवट दै मोहि काहै को मारै ॥
कबीर कहते हैं---- अपने इष्टदेव के बाद अन्यदेव कैसा; अब हृदय में जगह कहाँ, जहाँ दूसरे को रहने दूँ । वे किसी से हँसने- बोलने के लिए भी तैयार नहीं; कहते हैं ----
प्रीति रीति तो तुझ सों मेरे बहु गुनियाले कन्त
जो हँसि बोलूँ और सो तो नील रंगाऊँ दंत ॥
इस तरह राम वियोगी कबीर पहले तो जीता नहीं है, और जीता है बौरा होकर । उनके अनुसार जिस घट में विरह भाव नहीं , वह मसान है, वे अपने पीउ को देखने के लिए तन के दीये को जीव की बाती को लहू के तेल से सींचते हैं । इस विरह को सामान्य लौकिक विरह समझना भूल होगा । यह तो उस राजा का विरह है, जो सारे संसार का शासक है । कबीर विरहिणी की भाँति पथ पर खड़े होकर सभी पंथी से व्याकुल होकर पूछते हैं, कहते हैं------ मेरे प्रिय का कुछ खबर सुनाओ, वे कब आकर मुझसे मिलने वाले हैं । उनका पथ निहारते-निहारते आँखों में झाईं पड़ गई, नाम पुकारते-पुकारते जी पर छाले पड़ गये । वे कभी-कभी अपने प्रिय से स्वप्न मिलन का सुख अनुभव करते हैं , तब आँख खुल जाने से प्रिय फ़िर से विछड़ जायेंगे, सोचकर आँख खोलने से डरते हैं । वे कहते हैं--- जैसे माया मन में रमी है , वैसे ही जिस दिन मन में राम रम जायेगा, उस दिन मुक्ति निश्चित है । कबीर प्रेम और हरि में कोई अंतर नहीं मानते, वे कहते हैं, “ सूरज और धूप में क्या अंतर है ?”
प्रेम हरि का रूप है, त्यों हरि प्रेम स्वरूप
एकहि है वहै में लसै,ज्यों सूरज औ धूप ॥
कबीर अपनी आध्यात्मिक प्रवृति और भक्ति संस्कार के लिए भी हरि कृपा को उत्तरदायी मानते हैं । कबीर अपनी विनम्रता और तुच्छता का जिस रूप में परिचय देते हैं, इससे उनके प्रति कौन नहीं श्रद्धावान होगा ? वे तो अपने निंदक को भी आँगन कुटि छवाय का स्थान देना चाहते हैं ; लिखते हैं ------
निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटि छवाई
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करै सुभाई ॥
कबीर धर्म ने धर्म क्षेत्र में मिथ्याडम्बर और शुष्क ग्यान की बात करनेवालों की भरपूर निंदा किया है । मगर सच्चे सिद्ध, भक्त उनके परम पूज्य रहे । उन्हें जहाँ और जिनमें भी भक्ति दिखी, उसकी प्रशंसा करते नहीं अघाये । सच्चे वैष्णवों के प्रति उनसे बढ़कर और किसी ने श्रद्धा नहीं दिखाई । कबीर ने परमात्मा के लिए जिन शब्दों का प्रयोग किया है, उनमें प्राय: सभी मध्यकाल से पुराने हैं ________
निरंजन, यह शब्द निरंजनी पंथ में चलता है, पर शब्द प्राचीन है । इस शब्द का प्रयोग श्वेताश्वतर उपनिषद में भी हुआ है ----
’निष्क्रियं शांत निर्वद्धं निरंजनम
अमृतस्य पर सेतु दग्धेन्धनमिवानलम ॥’
कबीर ने कहा --- सेवक सो लागे सेवाति नहीं पाया निरंजनेदव
अलख निरंजन लखै न कोई ॥
कबीर ने मन को गोरख, गोविंन्द और औघड़ कहा है ------
मन गोरख , मन गोविंद, मन ही औघड़ होइ ।
जो मन राखै जतन करि, तो आपै करता होइ ॥
कबीर धर्मक्षेत्र में जब उदित हुए, उस समय कई प्रकार के सम्प्रदाय या पंथ चल रहे थे , सभी अपने-अपने क्षेत्र में साधु-विरागी, अपने-अपने सिद्धांत का प्रचार कर रहे थे । स्वामी रामानंद ने भक्ति का उपदेश दिया; उन्होंने भक्ति का द्वार शूद्र , स्त्री आदि सबके लिए खोल दिया । अत: इस वैष्णव भक्ति मार्ग के प्रति कबीर का झुकाव स्वाभाविक था । अपने गुरु से रामभक्ति और राममंत्र प्राप्त कर कबीर,हिंदी में भी उपदेश देने लगे । हिंदी में उनकी गति सामान्य जान पड़ती है; मात्र थोड़े से पद मिलते हैं, जिनसे न ही उनका तेजस्वी रूप व्यक्त होता है और न ही गहरी रामभक्ति का आभास, मगर हाँ हिंदी साहित्य इस बात को लेकर ऋणी है, कि उनके शिष्यों ने हिंदी क्षेत्र की देश-भाषा में प्रथम बार उपदेश दिया ।
कबीर जुलाहा थे और रविदास चमार ; एक मुस्लिम समाज के निचले स्तर पर , दूसरा हिंदू समाज के , दोनों ही समाज के उपेक्षित वर्ग, दोनों ही एक गुरु से प्रभावित थे; दोनों की परिस्थितियाँ भी लगभग एक जैसी थीं । वे अपनी जातीय जीविका का त्याग नहीं कर सकते थे , इसलिए कि दोनों के पास रोजी-रोटी का कोई दूसरा साधन नहीं था । दोनों ही अपने गृहस्थ जीवन को निभाते हुए , भक्ति में लीन रहते थे । कबीर की भक्ति की ख्याति सारे उत्तर भारत में थी । उन्होंने हिंदू-मुसलमान ,सबों को अपने सरल ग्यान का उपदेश दिया ।
कबीर को ग्यान सत्यानुभव से प्राप्त हुआ था । पुस्तक पढ़कर नहीं, वे एक महान आध्यात्मिक क्रांति के प्रवर्तक थे । निर्गुण और सगुण शास्त्र परम्परा को स्वीकार करनेवाली भक्तिधारा में अंतर पड़ गया । निर्गुण संत धारा में ऐसे संत आये, जो धर्मों के बाह्य-नियमों और विधानों को अस्वीकृत कर केवल भक्ति द्वारा भगवान का नाम-स्मरण करते थे । इस मत में वे लोग आये, जिनके उपदेश देने के अधिकार को वर्णाश्रम माननेवाले समाज के नेता स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे । जुलाहा, चमार ,नाई, डोम, बनिया जाति के संतों को उपदेशक के रूप में देखकर वर्णाश्रम की मर्यादा के पोषक पंडितों और ब्राह्मणों के कान खड़े हो गये । पहले तो उन्होंने इस प्रवाह को रोकने की कोशिश की , बाद विरोध में उतर आये । कबीर के पहले धर्मक्षेत्र में हिंदी को समकालीन देशभाषा को स्थान नहीं मिला था । कबीर से ही जनभाषा या देशभाषा में कविता का आरम्भ होता है ,इस तरह कबीर का हिन्दी में महत्व कम नहीं है ।
कबीर ने गुरुनानक को अत्यंत प्रभावित किया ; कदाचित नानक , कबीर को की मन ही मन अपना गुरु मानते हों या उन्हीं के अनुयायी किसी संत से दीक्षित हों । इस तरह कबीर अपने समय में प्रसिद्ध सिद्ध पुरुष के रूप में स्वीकृत हुए । आध्यात्म क्षेत्रों के संतों के समान, उन्होंने अपने वचनामृत से लोक-कल्याण किया । उन्होंने बाणी द्वारा आध्यात्म तत्व का प्रकाश किया ।
कबीर की रचनाएँ तीन रूपों में मिलती हैं----- पद , रमैनी और साखी ; ’’ वीजक “ उनके उपदेशों की कुँजी है । उनकी भाषा-शैली प्राय: सरल, सुबोध और लोकरूचि अनुकूल है , किन्तु कुछ स्थलों पर वे संकेतों और प्रतीकों की गूढ़ भाषा में अपने रहस्यपूर्ण आध्यात्मिक अनुभव व्यक्त करते हैं । निर्गुणकाल के इतने बड़े वेत्ता और उपदेष्टा मध्यकाल में कोई दूसरा नहीं हुआ ।





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