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Dr. Srimati Tara Singh
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पानी ने बेपानी किया

 

पानी ने बेपानी किया


          रामपुर के किसान, माथुर की बेटी सावित्री, विष्णुपुर के मास्टर (हरिओम) के बेटे, अजय के साथ शादी कर जब घर आई, तब लोग दोनों की शारीरिक भिन्नताएँ देखकर, तरह-तरह का मजाक करते थे| कोई कहता, लड़का बरगद का विशाल वृक्ष और लड़की किसी बाग़ का कोमल पौधा ; ऊपरवाले ने भी क्या खूब जोड़ी लगाईं है!

              दोनों का जीवन बड़ा ही सुखमय था| रहने के लिए एक कच्चा मकान था, पर जीने का इरादा पक्का था| दुःख की आँधी, अभाव की बरसात पैने काँटे नहीं, ऊपरवाले की माया जान दोनों चुप-चुप सह लेते थे| सावित्री कहती थी, ‘हमारे पास जितना धन है, क्या कम है, भरपेट रोटी-दाल तो पुर ही जाता है ; तन ढँकने के कपड़े भी हो जाते हैं| जीने के लिए और क्या चाहिए? मेरी नजर में, जो पैसे-पैसे को दांत से जकडे रहते हैं, मानो दौलत कोई दीपक हो, उसी से घर उजाला होगा, तो यह गलत है|

अजय को सावित्री की बातें अच्छी नहीं लगी, मुँह सिकोड़कर बोला, ‘सावित्री, दौलत रूपी चिराग को बुझाकर, दूसरा चिराग जलाना, असंभव है, कारण उसे जलाने के लिए दौलत चाहिए, दौलत| वह ज़माना तो अब रहा नहीं, जब शिक्षा, बनी -बनाई कोई प्रणाली नहीं थी, लोग अपने उद्देश्य को सामने रखकर ही साधनों की व्यवस्था करते थे| उस समय आदर्श महापुरुषों के चरित्र, सेवा और त्याग की कथाएँ, भक्ति और प्रेम के पद, यही शिक्षा के आधार थे| मगर आज शिक्षा का आधार दौलत है, दौलत के बगैर शिक्षा नहीं मिलती, इसलिए अपना तो जैसे-तैसे चल रहा है, पर आनेवाला कल नहीं चलेगा, उसके लिए पैसे चाहिए| 

सावित्री मुस्कुराती हुई बोली, ‘विजय! सुना था, लोगों में बाप बनने के बाद वात्सल्य की स्निग्धता आती है, तुममें तो पहले ही आ गया| चलो अच्छा हुआ, भविष्य से सावधानी बरतनी बुरी बात नहीं है|

पत्नी सावित्री के मुख से सनद पाकर अजय के मुँह पर आत्मगौरव की आभा झलक पड़ी, मानो बैठे-बैठे यश पाकर जीवन सफल हो गया| शिशु का कल्पना-चित्र उसकी आँखों में खींच गया ; वह नवनीत सा कोमल शिशु, उसकी गोद में खेल रहा है| अजय की सम्पूर्ण चेतना, इसी कल्पना में मग्न थी, तभी सावित्री चाय का कप, अजय के हाथ में थमाते हुए कही, ‘अजय, तुम जिसके ख्याल में डूबे हुए हो, वह हमारे घर आ गया है|

 अजय ने सावित्री की ओर जब देखा तो पाया, सावित्री नारी की ज्योति में नहा उठी है| उसका ममत्व जैसे प्रस्फुटित होकर उसे आलिंगन कर रहा है| 

             वही अजय जिसने रामायण, महाभारत की कहानियाँ कभी नहीं सुनी, मगर जब से जाना, सावित्री माँ बनने वाली है, तब से इन दोनों काव्यों से, उसे विशेष प्रेम हो गया| अजय, बच्चे को संस्कार दिलाने के लिए, रामायण पढ़-पढ़कर सावित्री को सुना-सुनाकर खुश रखने की कोशिश करने लगा, और खुद भी खुश रहने का प्रयास करने लगा| वह दिन भी आ गया जब सावित्री ने एक बालक को जनम दिया, नाम रखा, ‘सुकेश| सुकेश को गले लगाते ही पति-पत्नी, दोनों के मन में अतीत यौवन सचेत हो उठा; मानो एक नए घोड़े पर सवार हो| अजय अपना विशाल वक्ष तानकर सावित्री से कहा, ‘इसे जैसे-तैसे स्कूल में नहीं, अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाऊँगा|

अजय की उड़ान की बात सुनकर सावित्री दुखी हो बोली, ‘पैसे कहाँ से आयेंगे? खेत की उपज जैसे-तैसे बेच-बाचकर, लगान चुकता कर पाते हो, इससे अधिक तो कभी कुछ देखी नहीं| तुम्हारी नौकरी के पैसे से कपड़े, दवा, खाना किसी तरह पूरा होता है| ऐसे में सुकेश को अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाने की बात, कैसे पूरा करोगे?

अजय मायूस हो बोला – सावित्री! इतना ही होता, तो किसी तरह मैं पूरा भी कर लेता, यहाँ तो पिताजी द्वारा लिए कर्जे से, मेरा बाल-बाल बंधा हुआ है| हर साल उपज के पैसे से चुकता करने की बात सोचता हूँ, पर कभी सुखा, कभी अतिवृष्टि की वजह से बाकी ही रह जाता है| बेवसी से जीना, बेवसी से मरना, किसान का यही भाग्य है, फिर अपने ही कथन का विरोध करते हुए, अजय सजल-नेत्र होकर कहा, ‘बावजूद मैं, अपने बेटे को अंग्रेजी स्कुल में पढ़ाऊँगा| जरूरत पड़ी तो दो रोटी की जगह, एक रोटी खाऊँगा, हफ्ते में एक दिन की जगह, दो दिन व्रत रखूँगा| अपने जीवन के महान संकल्पों की पूर्णता के लिए अपनी आत्माओं को एक छोटे से पिंजड़े में बंद कर दूँगा, क्योंकि आने वाला कल सिर्फ पथ-प्रदर्शक नहीं, मेरा दुखहारी भी बनेगा| 

पति के मुंह से ऐसी बातें सुनकर सावित्री के मन में ऐसा भाव उठा, कि वह अजय के सीने से लग गई| उसका रोम-रोम पुलकित हो उठा| जिस आनंद को दुर्लभ समझ रही थी, वह इतना सुलभ, उसके ह्रदय का आह्लाद, चेहरे पर आकर शोभने लगा| उसे अजय में देवत्व की आशा दीख पड़ी| 

स्कूल की पढ़ाई ख़त्म होते ही, अजय ने सुकेश को उच्च शिक्षा के लिए शहर भेज दिया| सुकेश पढ़ाई में बहुत तीव्रबुद्धि का था| इंजीनियरिंग की परीक्षा पास कर, जब  सुकेश घर लौटा, पति-पत्नी दोनों, बेटे की ओर सगर्व दृष्टि से देखते हुए, आशीर्वाद दिया, कहा, ‘बेटा! अब एक और इच्छा है, उसे भी पूरी कर दो| हमलोग अपनी आँखों से तुम्हारी गृहस्थी बसा देखना चाहते हैं| हमलोग तुम्हारे लिए एक लड़की देख रखे हैं, कहो तो, बात आगे बढायें?

सुकेश, लज्जा का आवरण लिये बोला, ‘आपलोग जैसा उचित समझें| 

             जिस प्रकार प्यास से तड़पता हुआ मनुष्य, ठंढा पानी पीकर तृप्त हो जाता है| पिता के एक-एक शब्द उसकी आँखों में प्रकाश और चेहरे पर विकास उत्पन्न कर दे रहा था| उसका मुखचन्द्र उज्जवल, आँखें उन्मत्त हो गईं| उसके ह्रदय के भीतर एक नई स्फूर्ति की संचार हो गई, लेकिन लज्जावश अपने प्रेमज्वार को मुँह से प्रकट नहीं होने दिया| 

               सुकेश की शादी हुए पाँच साल बीत गए| शादी के तुरंत बाद ही सुकेश, पत्नी को लेकर कलकत्ता चला गया| वहाँ वह सरकारी नौकरी में इंजिनियर के पद पर कार्यरत था| यहाँ गाँव में माँ-बाप, नाना प्रकार की चिंताओं और बाधाओं से ग्रस्त रहने के बाद भी, पुत्र के शांतिमय, निर्विघ्न जीवन-यापन का समाचार सुनकर प्रफुल्लित हो जाते थे| जब कि दोनों का जीवन पहले जैसा नहीं था| दोनों ही बूढ़े हो चुके थे| दोनों घर के दो कोने में तपस्वी की भाँति चुपचाप एक जगह बैठे रहते थे| मिलने -जुलने वालों में से, कुछ तो दुनिया से जा चुके थे, कुछ जाने की तैयारी में, व्यस्त हो गए थे| सुकेश भी अपने परिवार, बच्चे और नौकरी की व्यस्तता बताकर, घर का रास्ता ही भूल गया| 

एक दिन सुकेश की माँ, अपने एकाकीपन से हारकर बेटे को फोन लगाई| कही, ‘बेटा! आजकल तुम्हारे पिता बहुत बीमार रहा करते हैं| मेरी भी तबीयत ठीक नहीं चल रही है| एकाकीपन मार दिया, हम सोच रहे हैं, कुछ दिनों के लिए, तुम्हारे पास आ जाएँ; मुन्ना के साथ जी बहल जायगा और पिताजी को भी डॉक्टर से दिखाना हो जायगा| 

माँ की बात सुनकर, सुकेश काँप गया, मानो विषधर ने काट लिया हो, पर तुरंत ही खुद को संयमित कर बोला, ‘माँ, मैं तुम्हारे कष्ट को समझता हूँ| मैं भी इधर कई दिनों से यही सोच रहा था कि, तुम दोनों को अपने पास ले आऊँ, मगर!, ‘सुकेश का बोला ख़तम भी नहीं हुआ था कि सावित्री अचंभित हो पूछ डाली, ‘मगर क्या बेटा? तुम्हारा स्वास्थ्य ठीक है तो, बहू कुशल से है, बच्चे रोज स्कूल जाते होंगे? अब तो छोटा मुन्ना बहुत बड़ा हो गया होगा? उसे देखे चार साल बीत गये! अब तुम सब के बिना यहाँ जी नहीं लगता है|

सुकेश, आत्मीयता के साथ कहा, ‘ऐसे तो यहाँ सब ठीक है, माँ, मगर यहाँ पानी की बड़ी दिक्कत है| दिन में एक बार ही नल में पानी आता है, हमलोग चारों आपस में, दिन बदल-बदलकर स्नान करते हैं| इसलिए जैसे ही पानी का इंतजाम होता है, मैं तुमलोगों को अपने पास ले आऊँगा|

सावित्री, ‘ठीक है बेटा! पर पानी का इंतजाम जल्दी कर लेना, कहकर फोन रख दी| 

बगल में बैठा अजय, जो सावित्री के फोन रखने का इंतजार कर रहा था ; फोन रखते ही बोला, ‘सावित्री मुझे दुःख होता है, यह सोचकर कि वर्षों के त्याग की वेदी पर, आत्म-समर्पण करके भी तुम ममत्व के बंधन में बंधी हुई हो| 

सावित्री गंभीरता से बोली, ‘अजय! तुम इस बंधन को इतना जीर्ण क्यों समझते हो? अरे जिसे मैंने वायु और गर्मी से बचाने के लिए आँचल का शामियाना तान कर रखी थी, उसे कोई पार्थिव शक्ति कभी तोड़ सकता है?  कितनी शोक की बात है, कि हमारे आत्मिक ऐक्य से भलीभाँति परिचित होकर भी, तुम, हम माँ-बेटे के रिश्ते की अवहेलना कर रहे हो| तुमको विश्वास नहीं हो रहा है न, तो देखना, जब वह अचानक एक दिन हमारे पास आ धमकेगा और कहेगा, माँ -पिताजी पानी का इंतजाम हो गया, अब आपलोग मेरे साथ कलकत्ता चलिये|

मैं आप दोनों को, यहाँ से एक-दो दिनों के लिए नहीं, बल्कि सदा के लिए अपने पास ले जाने आया हूँ| सावित्री की बातें सुनकर, अजय को अपना ही क्षोभयुक्त विचार इतना मसोसा कि उसकी आँखों से पानी निकल आया| यह सब देखकर सावित्री, अपनी निठुरता और अविश्वास पर बड़ी दुखी हुई| आत्मरक्षा की अग्नि जो कुछ क्षण पहले प्रदीप्त हुई थी, इन आँसुओं से बुझ गई| वह सतृष्ण आँखों से अजय की तरफ देखती हुई बोली, ‘अजय! मैं, बेटे की कितनी जड़-भक्त हूँ, कि रूप और गुण का निरूपण न कर सकी, मुझे माफ़ कर दो| 

             छ: महीने बीत गये, सुकेश का आना तो दूर, एक फोन तक नहीं किया| सावित्री पुत्र के लिए चिंतित, उदास रहने लगी| अजय समझ गया, पर कुछ पूछने का साहस नहीं किया, मगर इतना जरूर कहा, ‘सावित्री, हो सकता है, सुकेश फोन करने का समय नहीं निकाल पा रहा हो, , एक बार तुम्हीं क्यों नहीं कर लेती?

अजय की बात सुनकर सावित्री का ह्रदय उछल पड़ा| उसने सुकेश को फोन लगाया, कहा, ‘बेटा! तुम्हारा कोई फोन नहीं आया, न ही तुम आये, सब कुछ ठीक तो है?

सुकेश, आत्मीयता के साथ कहा, ‘हाँ माँ, ऐसे तो सब ठीक है, पर पानी का इंतजाम अभी तक नहीं कर पाया| समय ही नहीं मिलता है, आफिस देखना, घर संभालना, बच्चे को पढ़ाना, स्कूल से लाना-दे आना, बड़ी परेशान रहता हूँ| तुम्हारी बहू भी घर के काम-काज से दिन भर परेशान रहती है| इसलिए, मेरी समझ से यहाँ आकर भी तुमलोगों को अकेले ही रहना होगा| मैं और मुन्ना तो सुबह आठ बजे निकल जाते हैं| मुन्ने की माँ, भोर पाँच बजे से रात दश बजे तक घर के काम-काज से साँस नहीं ले पाती है| अच्छा होगा कि तुम और पिताजी, वहीँ गाँव की शुद्ध हवा में रहते| यहाँ तो लोग भीड़ में होकर भी अकेले रहते हैं| कोई किसी से बात तक नहीं करते, न कोई किसी के घर जाता| वहाँ तो लोग अपने पड़ोस के झोपड़े में रात काटकर. उन्हीं का –सा खाना खाकर अपने को धन्य समझते हैं| यहाँ ऊँची -ऊँची अट्टालिकाओं में रहकर भी, लोग खिन्न जीते हैं| 

सावित्री, बेटे का उपदेश सुनकर करुण कंठ से भरी आवाज में कही, ‘अच्छा तो ठीक है बेटा, पर तुम अपने पानी का इंतजाम अवश्य कर लेना, क्योंकि पानी बिना यह जीवन सूना है| रहीम कवि ने कहा है, ‘

                  ‘’रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून|

                   पानी गए न उबरे, मोती, मानुष, चून||”

सुकेश से बात कर सावित्री, पति अजय के चरणों पर गिर पड़ी ; उसकी निर्जीव, निराश, आहत आत्मा संतावना के लिए, उस रोगी की तरह जो जीवन-सूत्र क्षीण हो जाने पर, वैद्य के मुख की ओर आशा भरी आँखों से ताकती है| अजय, सावित्री को अपनी बाँहों का सहारा देकर, खटोले पर बिठाते हुए समझाया, कहा  

, ‘सावित्री, तुम इतनी हताश क्यों हो रही हो? चलो अच्छा हुआ न, देर से ही मगर, तुम्हारा मतिभ्रम तो टूटा, अब तुम अपने पानी का सम्मान करो, सुकेश अपने पानी का करेगा|

 


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