पानी ने बेपानी किया
रामपुर के किसान , माथुर की बेटी सावित्री , विष्णुपुर के मास्टर (हरिओम) के बेटे , अजय के साथ शादी कर जब घर आई , तब लोग दोनों की शारीरिक भिन्नताएँ देखकर, तरह-तरह का मजाक करते थे | कोई कहता, लड़का बरगद का विशाल वृक्ष और लड़की किसी बाग़ का कोमल पौधा ; ऊपरवाले ने भी क्या खूब जोड़ी लगाईं है !
दोनों का जीवन बड़ा ही सुखमय था | रहने के लिए एक कच्चा मकान था, पर जीने का इरादा पक्का था | दुःख की आँधी, अभाव की बरसात पैने काँटे नहीं, ऊपरवाले की माया जान दोनों चुप-चुप सह लेते थे | सावित्री कहती थी ----हमारे पास जितना धन है, क्या कम है, भरपेट रोटी-दाल तो पुर ही जाता है ; तन ढँकने के कपड़े भी हो जाते हैं | जीने के लिए और क्या चाहिए ? मेरी नजर में, जो पैसे-पैसे को दांत से जकडे रहते हैं ,मानो दौलत कोई दीपक हो , उसी से घर उजाला होगा, तो यह गलत है |
अजय को सावित्री की बातें अच्छी नहीं लगी , मुँह सिकोड़कर बोला--- सावित्री , दौलत रूपी चिराग को बुझाकर , दूसरा चिराग जलाना , असंभव है , कारण उसे जलाने के लिए दौलत चाहिए , दौलत | वह ज़माना तो अब रहा नहीं, जब शिक्षा ,बनी -बनाई कोई प्रणाली नहीं थी, लोग अपने उद्देश्य को सामने रखकर ही साधनों की व्यवस्था करते थे | उस समय आदर्श महापुरुषों के चरित्र, सेवा और त्याग की कथाएँ , भक्ति और प्रेम के पद, यही शिक्षा के आधार थे | मगर आज शिक्षा का आधार दौलत है , दौलत के बगैर शिक्षा नहीं मिलती , इसलिए अपना तो जैसे-तैसे चल रहा है , पर आनेवाला कल नहीं चलेगा , उसके लिए पैसे चाहिए |
सावित्री मुस्कुराती हुई बोली----- विजय ! सुना था , लोगों में बाप बनने के बाद वात्सल्य की स्निग्धता आती है , तुममें तो पहले ही आ गया | चलो अच्छा हुआ, भविष्य से सावधानी बरतनी बुरी बात नहीं है |
पत्नी सावित्री के मुख से सनद पाकर अजय के मुँह पर आत्मगौरव की आभा झलक पड़ी , मानो बैठे-बैठे यश पाकर जीवन सफल हो गया | शिशु का कल्पना-चित्र उसकी आँखों में खींच गया ; वह नवनीत सा कोमल शिशु , उसकी गोद में खेल रहा है | अजय की सम्पूर्ण चेतना, इसी कल्पना में मग्न थी , तभी सावित्री चाय का कप , अजय के हाथ में थमाते हुए कही --- अजय, तुम जिसके ख्याल में डूबे हुए हो, वह हमारे घर आ गया है |
अजय ने सावित्री की ओर जब देखा तो पाया , सावित्री नारी की ज्योति में नहा उठी है | उसका ममत्व जैसे प्रस्फुटित होकर उसे आलिंगन कर रहा है |
वही अजय जिसने रामायण , महाभारत की कहानियाँ कभी नहीं सुनी, मगर जब से जाना , सावित्री माँ बनने वाली है , तब से इन दोनों काव्यों से , उसे विशेष प्रेम हो गया | अजय, बच्चे को संस्कार दिलाने के लिए , रामायण पढ़-पढ़कर सावित्री को सुना-सुनाकर खुश रखने की कोशिश करने लगा, और खुद भी खुश रहने का प्रयास करने लगा | वह दिन भी आ गया जब सावित्री ने एक बालक को जनम दिया , नाम रखा----सुकेश | सुकेश को गले लगाते ही पति-पत्नी, दोनों के मन में अतीत यौवन सचेत हो उठा; मानो एक नए घोड़े पर सवार हो | अजय अपना विशाल वक्ष तानकर सावित्री से कहा --- इसे जैसे-तैसे स्कूल में नहीं, अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाऊँगा |
अजय की उड़ान की बात सुनकर सावित्री दुखी हो बोली--- पैसे कहाँ से आयेंगे ? खेत की उपज जैसे-तैसे बेच-बाचकर , लगान चुकता कर पाते हो, इससे अधिक तो कभी कुछ देखी नहीं | तुम्हारी नौकरी के पैसे से कपड़े, दवा, खाना किसी तरह पूरा होता है | ऐसे में सुकेश को अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाने की बात,कैसे पूरा करोगे ?
अजय मायूस हो बोला – सावित्री ! इतना ही होता, तो किसी तरह मैं पूरा भी कर लेता , यहाँ तो पिताजी द्वारा लिए कर्जे से, मेरा बाल-बाल बंधा हुआ है | हर साल उपज के पैसे से चुकता करने की बात सोचता हूँ , पर कभी सुखा, कभी अतिवृष्टि की वजह से बाकी ही रह जाता है | बेवसी से जीना, बेवसी से मरना , किसान का यही भाग्य है , फिर अपने ही कथन का विरोध करते हुए,अजय सजल-नेत्र होकर कहा---- बावजूद मैं, अपने बेटे को अंग्रेजी स्कुल में पढ़ाऊँगा | जरूरत पड़ी तो दो रोटी की जगह, एक रोटी खाऊँगा, हफ्ते में एक दिन की जगह, दो दिन व्रत रखूँगा | अपने जीवन के महान संकल्पों की पूर्णता के लिए अपनी आत्माओं को एक छोटे से पिंजड़े में बंद कर दूँगा, क्योंकि आने वाला कल सिर्फ पथ-प्रदर्शक नहीं , मेरा दुखहारी भी बनेगा |
पति के मुंह से ऐसी बातें सुनकर सावित्री के मन में ऐसा भाव उठा, कि वह अजय के सीने से लग गई | उसका रोम-रोम पुलकित हो उठा | जिस आनंद को दुर्लभ समझ रही थी , वह इतना सुलभ, उसके ह्रदय का आह्लाद , चेहरे पर आकर शोभने लगा | उसे अजय में देवत्व की आशा दीख पड़ी |
स्कूल की पढ़ाई ख़त्म होते ही, अजय ने सुकेश को उच्च शिक्षा के लिए शहर भेज दिया | सुकेश पढ़ाई में बहुत तीव्रबुद्धि का था | इंजीनियरिंग की परीक्षा पास कर , जब सुकेश घर लौटा , पति-पत्नी दोनों, बेटे की ओर सगर्व दृष्टि से देखते हुए , आशीर्वाद दिया, कहा----- बेटा ! अब एक और इच्छा है, उसे भी पूरी कर दो | हमलोग अपनी आँखों से तुम्हारी गृहस्थी बसा देखना चाहते हैं | हमलोग तुम्हारे लिए एक लड़की देख रखे हैं , कहो तो, बात आगे बढायें ?
सुकेश, लज्जा का आवरण लिये बोला--- आपलोग जैसा उचित समझें |
जिस प्रकार प्यास से तड़पता हुआ मनुष्य ,ठंढा पानी पीकर तृप्त हो जाता है | पिता के एक-एक शब्द उसकी आँखों में प्रकाश और चेहरे पर विकास उत्पन्न कर दे रहा था | उसका मुखचन्द्र उज्जवल, आँखें उन्मत्त हो गईं | उसके ह्रदय के भीतर एक नई स्फूर्ति की संचार हो गई, लेकिन लज्जावश अपने प्रेमज्वार को मुँह से प्रकट नहीं होने दिया |
सुकेश की शादी हुए पाँच साल बीत गए | शादी के तुरंत बाद ही सुकेश ,पत्नी को लेकर कलकत्ता चला गया | वहाँ वह सरकारी नौकरी में इंजिनियर के पद पर कार्यरत था | यहाँ गाँव में माँ-बाप, नाना प्रकार की चिंताओं और बाधाओं से ग्रस्त रहने के बाद भी, पुत्र के शांतिमय, निर्विघ्न जीवन-यापन का समाचार सुनकर प्रफुल्लित हो जाते थे | जब कि दोनों का जीवन पहले जैसा नहीं था| दोनों ही बूढ़े हो चुके थे | दोनों घर के दो कोने में तपस्वी की भाँति चुपचाप एक जगह बैठे रहते थे | मिलने -जुलने वालों में से, कुछ तो दुनिया से जा चुके थे , कुछ जाने की तैयारी में, व्यस्त हो गए थे | सुकेश भी अपने परिवार, बच्चे और नौकरी की व्यस्तता बताकर, घर का रास्ता ही भूल गया |
एक दिन सुकेश की माँ, अपने एकाकीपन से हारकर बेटे को फोन लगाई | कही --- बेटा ! आजकल तुम्हारे पिता बहुत बीमार रहा करते हैं | मेरी भी तबीयत ठीक नहीं चल रही है | एकाकीपन मार दिया, हम सोच रहे हैं, कुछ दिनों के लिए, तुम्हारे पास आ जाएँ; मुन्ना के साथ जी बहल जायगा और पिताजी को भी डॉक्टर से दिखाना हो जायगा |
माँ की बात सुनकर ,सुकेश काँप गया, मानो विषधर ने काट लिया हो, पर तुरंत ही खुद को संयमित कर बोला --- माँ , मैं तुम्हारे कष्ट को समझता हूँ | मैं भी इधर कई दिनों से यही सोच रहा था कि , तुम दोनों को अपने पास ले आऊँ, मगर ! -----सुकेश का बोला ख़तम भी नहीं हुआ था कि सावित्री अचंभित हो पूछ डाली --- मगर क्या बेटा ? तुम्हारा स्वास्थ्य ठीक है तो, बहू कुशल से है , बच्चे रोज स्कूल जाते होंगे ? अब तो छोटा मुन्ना बहुत बड़ा हो गया होगा ? उसे देखे चार साल बीत गये ! अब तुम सब के बिना यहाँ जी नहीं लगता है |
सुकेश, आत्मीयता के साथ कहा---- ऐसे तो यहाँ सब ठीक है, माँ, मगर यहाँ पानी की बड़ी दिक्कत है | दिन में एक बार ही नल में पानी आता है , हमलोग चारों आपस में, दिन बदल-बदलकर स्नान करते हैं | इसलिए जैसे ही पानी का इंतजाम होता है, मैं तुमलोगों को अपने पास ले आऊँगा |
सावित्री ----- ठीक है बेटा ! पर पानी का इंतजाम जल्दी कर लेना, कहकर फोन रख दी |
बगल में बैठा अजय, जो सावित्री के फोन रखने का इंतजार कर रहा था ; फोन रखते ही बोला ---- सावित्री मुझे दुःख होता है, यह सोचकर कि वर्षों के त्याग की वेदी पर , आत्म-समर्पण करके भी तुम ममत्व के बंधन में बंधी हुई हो |
सावित्री गंभीरता से बोली --- अजय ! तुम इस बंधन को इतना जीर्ण क्यों समझते हो ? अरे जिसे मैंने वायु और गर्मी से बचाने के लिए आँचल का शामियाना तान कर रखी थी , उसे कोई पार्थिव शक्ति कभी तोड़ सकता है ? कितनी शोक की बात है , कि हमारे आत्मिक ऐक्य से भलीभाँति परिचित होकर भी, तुम, हम माँ-बेटे के रिश्ते की अवहेलना कर रहे हो | तुमको विश्वास नहीं हो रहा है न , तो देखना , जब वह अचानक एक दिन हमारे पास आ धमकेगा और कहेगा , माँ -पिताजी पानी का इंतजाम हो गया, अब आपलोग मेरे साथ कलकत्ता चलिये |
मैं आप दोनों को, यहाँ से एक-दो दिनों के लिए नहीं, बल्कि सदा के लिए अपने पास ले जाने आया हूँ | सावित्री की बातें सुनकर, अजय को अपना ही क्षोभयुक्त विचार इतना मसोसा कि उसकी आँखों से पानी निकल आया | यह सब देखकर सावित्री, अपनी निठुरता और अविश्वास पर बड़ी दुखी हुई | आत्मरक्षा की अग्नि जो कुछ क्षण पहले प्रदीप्त हुई थी , इन आँसुओं से बुझ गई | वह सतृष्ण आँखों से अजय की तरफ देखती हुई बोली ---अजय ! मैं, बेटे की कितनी जड़-भक्त हूँ , कि रूप और गुण का निरूपण न कर सकी , मुझे माफ़ कर दो |
छ: महीने बीत गये, सुकेश का आना तो दूर, एक फोन तक नहीं किया | सावित्री पुत्र के लिए चिंतित , उदास रहने लगी | अजय समझ गया , पर कुछ पूछने का साहस नहीं किया, मगर इतना जरूर कहा---- सावित्री , हो सकता है, सुकेश फोन करने का समय नहीं निकाल पा रहा हो ,, एक बार तुम्हीं क्यों नहीं कर लेती ?
अजय की बात सुनकर सावित्री का ह्रदय उछल पड़ा | उसने सुकेश को फोन लगाया , कहा ---- बेटा ! तुम्हारा कोई फोन नहीं आया , न ही तुम आये, सब कुछ ठीक तो है ?
सुकेश , आत्मीयता के साथ कहा--- हाँ माँ , ऐसे तो सब ठीक है, पर पानी का इंतजाम अभी तक नहीं कर पाया | समय ही नहीं मिलता है, आफिस देखना , घर संभालना,बच्चे को पढ़ाना , स्कूल से लाना-दे आना, बड़ी परेशान रहता हूँ | तुम्हारी बहू भी घर के काम-काज से दिन भर परेशान रहती है | इसलिए,मेरी समझ से यहाँ आकर भी तुमलोगों को अकेले ही रहना होगा | मैं और मुन्ना तो सुबह आठ बजे निकल जाते हैं| मुन्ने की माँ, भोर पाँच बजे से रात दश बजे तक घर के काम-काज से साँस नहीं ले पाती है | अच्छा होगा कि तुम और पिताजी, वहीँ गाँव की शुद्ध हवा में रहते | यहाँ तो लोग भीड़ में होकर भी अकेले रहते हैं | कोई किसी से बात तक नहीं करते , न कोई किसी के घर जाता | वहाँ तो लोग अपने पड़ोस के झोपड़े में रात काटकर. उन्हीं का –सा खाना खाकर अपने को धन्य समझते हैं | यहाँ ऊँची -ऊँची अट्टालिकाओं में रहकर भी, लोग खिन्न जीते हैं |
सावित्री, बेटे का उपदेश सुनकर करुण कंठ से भरी आवाज में कही ----- अच्छा तो ठीक है बेटा , पर तुम अपने पानी का इंतजाम अवश्य कर लेना , क्योंकि पानी बिना यह जीवन सूना है | रहीम कवि ने कहा है ------
‘’रहिमन पानी राखिये ,बिन पानी सब सून |
पानी गए न उबरे , मोती, मानुष, चून ||”
सुकेश से बात कर सावित्री ,पति अजय के चरणों पर गिर पड़ी ; उसकी निर्जीव, निराश, आहत आत्मा संतावना के लिए , उस रोगी की तरह जो जीवन-सूत्र क्षीण हो जाने पर , वैद्य के मुख की ओर आशा भरी आँखों से ताकती है | अजय , सावित्री को अपनी बाँहों का सहारा देकर, खटोले पर बिठाते हुए समझाया, कहा
----- सावित्री, तुम इतनी हताश क्यों हो रही हो ? चलो अच्छा हुआ न , देर से ही मगर, तुम्हारा मतिभ्रम तो टूटा , अब तुम अपने पानी का सम्मान करो, सुकेश अपने पानी का करेगा |
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