Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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पंख बिना मनुज अधूरा

 

पंख बिना मनुज अधूरा


अखिल विश्व के कोलाहल से दूर, नीले अम्बर पर

विहग जोड़े को उड़ते देख, पंख से पंख मिलाकर

कौन होगा ऐसा मनुज इस धरा पर, जिसके

उमंगों की उड़ानें, नहीं गई होंगी ऊपर तक

और विषाद भरा मन कह उठा होगा, मन ही मन

देव! हटा लो मेरा यह हाथ-पैर और लगा दो

मरे भी तन में एक जोड़ा पंख सुदंर-सा

मैं भी अपनी आकांक्षाओं के संग उड़ सकूँ

गगन में, मुक्त सोमरस पी सकूँ, विहगों-सा


यहाँ मनुज लालायित रहता एक सूरज को पाने

मैं देवलोक को ही उतार लाऊँगा, इस धरा पर

मही का भार उठाऊँगा बाजुओं में फूल समझकर

तप्त धरती माँ को सीचूँगा, चन्द्रमा से सुधा निचोड़कर

घटा को फाड़कर व्योम में घुसकर दहाडूँगा, प्रलय बनकर

इन्द्रलोक भी कॉप जायेगा, मेरी आवाज से कंपित होकर

सिंहासन छोड़ इन्द्र, दौड़ा-दौड़ा मेरे पास आयेगा

हाथ जोड़कर कहेगा,मनुज!बस करो,ऐसे में देवलाक मिट जायेगा

मैं आहवान करता हूँ कि आज के बाद धरती पर, अतिवृष्टि-

अनावृष्टि नहीं होगी, क्योंकि देवलोक में तभी तक सुरक्षा है

जब तक मनुज-लोक सुरक्षित है


यहाँ धरा की गहरी खाई मेँ अंधेरा नाश बनकर सोया रहता है

बिना किसी अवलंब का, धरती के ऊपर आकाश झूलता रहता है

जमीं, पहाड़, झरना, सागर जब-तब डोलता रहता है

मनुज-आत्मा भावी आशंका से हिल-हिल उठती है

विकल उर को आराम नहीं मिलता, अब तरु की घनी छाया में

क्योंकि अब तरु भी ग्रीष्म की तरह अग्नि बरसाता बसंत में

भूखे कंकालों के चीत्कारों से धरती काँपती रहती हर-पल

अब चेतना अट्टहास भरती, सूरज अग्नि बरसाता नभ से


काश एक बार आँखें खोलकर तुम भी देख लेते

मनुज करुणा के इस विगलित उर को

सहम उठते तुम भी, पागल हो जाते क्रोध से

इस भू पर, बाजुओं में विद्युत्‌ शक्ति पाकर भी

एक पंख बिना मनुज कितना लाचार, विवश है

भले ही धरती नीरव थी पहले, तुमने झंकार भरे

नादों से अदृश्य मनुज को नींद से क्‍यों जगाया

धरती का जीवन ज्योतिर्मय करने तुमने

मनुज तन में एक पंख क्‍यों नहीं लगाया

 


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