Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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पर्यावरण

 

पर्यावरण


यह जन धरणी, मनुजों का स्वर्ग-घर बनी रहे

पत्ते-पत्ते पर श्याम द्युति हरियाली छाई रहे

सृष्टि ने गगन से उतार, गंगा को धरा पर लाया

सोचा, इसकी शीतलता से दुष्काल अपने आप

दूर भागेगा, सुधा वृक्ष उन्‍नत होगा

मनुज मन के सहज वृत्त पर ज्ञान जागेगा.

तब मनुज को निज मंगल का बोध होगा


सुंदर सुखद सूर्य से सेवित यह धरा होगी

इसके समक्ष प्राच्य सिंधु का मुक्ता तुच्छ होगा

बरसेगा रिमझिम कर रंग अम्बर से

मन-मन का स्वप्न मन से निकलकर भीगेगा

तब पथ जोहती कूल पर वसुधा दीन-दुखी

श्रांत, प्यासे असुरासुर से थकी नहीं होगी

हर तरफ, क्षीर कल्प, जलपूर्ण सर-सरित

अगरु सौरभ से भरित पवन होगा


लेकिन मनुजों का विप्र, लोक जीवन के प्रतिनिधि

को तरु पत्रों के अंतराल से छन-छन कर

लोट रही भू रज पर किरणें, मन को नहीं भायीं

कहा, हम हैं लोक जीवन के भावी निर्माता

युग मानस घोर अंधविश्वास के कोहरे में

है लिपटा, उसे यह नहीं पता

युग जीवन का स्वर्णिम रूपांतर कैसे होगा

कैसे जीवन मन की अतल गहनता का वैभव

सूक्ष्म प्रसारणों से मन को ज्योति चमत्कृत करेगा


इसके लिए हमें भू को पुनः स्थापित करना होगा

रौंदकर फूलों की घाटी को, तोड़-मरोड़कर शोभा

पल्‍लव शाखाओं को, धरा धूलि में मिलाना होगा

प्रकृति [संग संघर्ष सीखना होगा

तृण तरु जो जकड़ा रहता, धरा मिट्टी को दैत्य-सा

जिससे घायल-दुखी, काँपता रहता भूतल

चित्कारें गुंजतीं दोहरी होकर, फटता गिरि-अंबर


उसे अपने प्रलय वेग से छिन्‍न-भिन्‍न कर

जीवन पथ को विस्तृत करना होगा

तभी पावन मोहित, निर्मित घाटियाँ जो चिर

करुणा, ममता के स्वर्णिम प्रकाश से रहती वंचित

जहाँ सभ्यता अब तक नहीं पहुँच सकी, जहाँ

प्रकृति की निर्ममता बीहड़ बन, घुसकर रहती खड़ी

जिससे सतत बढ़ रही अंधियाली, उसे मिटाना होगा


यही सोचकर मनुज मुट्ठी में अणु-संचार लिये

भावी की आशंका से, विश्व-विनाशक बन गया

कहा, झाँक रही नवल रूपहली आशा, धरा को

इसमें, प्रकृति रचित फूलों को मुरझाने दो

पत्रों की मरमर में झंकृत नहीं हो पाती, हृदय वीणा

का स्वर, यह विस्तृत कड़ी जगत-क्रम की

इससे समृद्धि परिणति कदापि संभव नहीं

इस देवत्व, लोकोत्तर को मत बढ़ने दो


आज धरा मनुज का जीवन, काल ध्वंस से है कवलित

तृष्णा के जीवन चक्की से इतना धुआँ निकल रहा

नये सूरज को लाने में चिमनी बन गयी धरती

रहता तप्ताकाश शून्य, जीवन जलता मरु-सा

किरणों में सप्त रंग फूल अब नहीं होते, कारण

यहाँ न साँस लेती अब कोई हरीतिमा, न ही

उसे चूमने सागर की लहरियाँ ही मचलतीं


मनुज कृत प्रेत-आत्माएँ अरण्य में रोदन करतीं

रिक्त ज्योति, महामृत्यु बन वृहत पंख पसारे रहती

तृष्णा भट्ठी की ओदी आँच पर घुँधुवाती रहती

मिट्टी का यह नूतन पुतला, अल्हड़ अभिमानी

सुरपुर को बर्बाद कर, वीरानों में जन्नत आबाद

करना चाहता, मगर उसे नहीं पता अंधेरे में

केवल उन्मादक फूल खिलते, जिसे कल्पना का

मोहक सामान तो सौंपा जा सकता, इससे

दग्ध, प्यासी लघु चाह नहीं मिटती
 

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