पथहीन नभ से उतर आता
वह कौन है जो रातों को पथहीन नभ से
दिवा की ज्वलित शिखा सा उड़कर
मेरे अधरोंके मधुरस में डूब, अपनी
प्यास बुझाने मेरे पास आता चुपचाप
मुझको जगाकर अपनी बाँहों में भरता
अपने जीवन प्रशांत की धारा में,चतुर तैराक-
सा ले जाकर नहलाता, फ़िर तप्त शोणित के
शांत दीपक की सौम्य शिखा में बिठाकर
पहनाता, विरह ज्वाल का हीरक हार
मैं भी उसके मधुर गंध से मान भरी
अग्नि कीट सी जलती रहती दिन-रात
तन की शिरा- शिरा में रागिनियाँ बंद
रहतीं तब तक,जब तक मन दिलाता नहीं
हृदय को, उसकेआने का विश्वास
आँखें बंद कर जब सोचती हूँ, करती हूँ विचार
यह मेरा भूला हुआ कोई अतीत है या फ़िर
कोई मेरी बेबसी का उड़ा रहा उपहास
तब बीता मेरा अतीत कर उठता चित्कार
कहता, तृषा को छोड़ ज्वलनशील अंतर लिये
मनुज भू से उठकर चला जाता तो उस पार
मगर मिलता कहाँ वहाँ,कोई जो सकल संचित
प्रेम अपना, अपने दृष्टिपथ से दे ढार
ऐसे भी देह मृत्ति है, दैहिक प्रकाश की
किरणें मृत्ति नहीं हैं,तभी तो अधर मिट
जाता है ,मिटती नहीं चुम्बन की झंकार
रूप, रंग स्पर्श ,निराकार के आकार में
रहकर, जग में करता रहता गुंजार
अंधकार का अंधकार बन, प्रकाश का
बन प्रकाश, प्राणी सदा जिंदा रहता
पाँच तत्वों से बना मानव का तन
सब के सब अमृतत्व हैं,इनमें से एक
भी महाकाल के घेरे में नहीं आता
न ही कोई बली कर सकता प्रहार
तभी तो अधीर आलिंगन की बाँहों में
दो देह नहीं मिलते,मिलते दो प्राणों के तार
इसके दोनों छोर अदृश्य रहते ,लेकिन
शोणित मांस त्वचासे टकराकर
मुख कमल - सा खिल उठता साकार
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY