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पिताश्री और आलम

 

पिताश्री और आलम


          आँगन में एक खटोले पर उदास, व्यथित बैठे मेरे पिता, अपने पास पड़े, अपने पास पड़े, गठरियों को कुछ इस तरह निहार रहे थे, मानो उनका जीवन भर का संचित धन इनमें बंद हो| तभी, मैं दौड़ती हुई दरवाजे पर से आँगन में आई, यह बताने कि ‘पिताजी! गाड़ीवान, आपको बुला रहा है, कहता है, बैलगाड़ी तैयार है, आप चलिये’| मैंने देखा, वे कुछ बुदबुदा रहे हैं; उन गठरियों से कह रहे हैं---- आलम, घर छोड़ने की बात, तुमने मुझसे क्यों नहीं बताया? तुम छुपकर क्यों चले गए? क्या साठ सालों तक एक साथ रहकर भी, तुमने मुझे अपना नहीं समझा, या फिर तुम्हें बताते डर लगा? कैसे विश्वास करूँ, कि तुम डरपोक हो जब कि तुम तो तुषारवृत्त अँधेरे में भी गंगा तट पर जाकर श्मशान का चक्कर लगा आते थे| जैसा कि तुम स्वयं मुझे बताते थे, अगर तुम डरपोक नहीं हो, तो क्या मुझे, मृत, सजीवता-रहित या हड्डी-मांस के टुकड़े के सिवा और कुछ नहीं समझे? मैं तुमको कहाँ-कहाँ नहीं ढूंढा, तुम्हारे गाँव, तुम्हारे भाई के घर गया, लेकिन किसी ने तुम्हारा कोई खोज-खबर नहीं दिया|

              सहसा पिताजी उठ खड़े हुए, जैसे अर्धचेतना अवस्था से जागे हों, और मुझसे कंपित स्वर में बोले---- बेटा! मैं एक आदमी से मिलने जा रहा हूँ, तुम चलोगी, तो चलो?

मैंने आहत स्वर में कहा–कहाँ पिताजी?

पिताजी दुर्बल कंठ से बोले---- वहीँ, जहाँ वह रहता है, जिसने मेरे और मेरे परिवार की खातिर, देवता और स्वर्ग का तिरस्कार कर दिया था| फिर अफ़सोस करते हुए बोले---- जानती हो बेटी, आर्थिक पराधीनता ही संसार में दुःख का कारण है, जिससे मुक्ति पाने के लिए लोग स्वर्ण की उपासना करते हैं| लेकिन उसने तो, स्वर्ण को लात मारकर मेरी और मेरे परिवार की उपासना में सारी जिंदगी काट दी|

मैं और कुछ पूछती, पर पिताजी के आँसूओं की बढ़ती हुई थरथरी को अनुभव कर चुप हो गई|

जेठ का महीना था| सूर्य अपने रजत-ताप से आसमान पर छाई लालिमा को और तेज करने लगा था, पिताजी ने एक बार आकाश को देखा, फिर बोले---- गाड़ीवान कहाँ है, बोलो उसे चलने, देरी हमलोगों को झुलसाकर रख देगा| मैं दौड़कर दरवाजे पर गई, गाड़ीवान से बोली---- गाड़ीवान चाचा, पिताजी तुमको आँगन में बुला रहे हैं| वहाँ कुछ गठरियाँ पड़ी हैं, उसे ले आओ| सुनते ही गाड़ीवान चाचा आँगन की ओर दौड़े, और क्षण भर बाद ही पिताजी के साथ दरवाजे पर आ गये| सभी सामानों को ठीक तरह बैलगाड़ी में रखे, बाद हमलोग भी गाड़ी में चढ़कर बैठ गए| लम्बी दूरी तय करनी थी, गाड़ीवान दूरी का अनुभव कम करने के लिए रास्ते भर गीत गाता आया| इस दौरान रास्ते में बहुत ही कम लोगों के दर्शन हुए, पर हाँ, कहीं-कहीं पगडंडी को छोड़कर खलेटी में वर्षा के पानी भर जाने के कारण तरी में हरियाली अवश्य दिखाई देती थी| वहाँ हमलोग उतरकर थोड़ी देर बैठते थे, गाड़ीवान बैलों को हरी घास चरने के लिए वहीँ छोड़ देते थे| वहाँ की हवा में कुछ ताजगी भरी ठंढक अवश्य थी, इससे हमलोग कुछ हद तक परेशानी से जाते थे|

              लगभग छ: घंटे के बैलगाड़ी से चलने के बाद, पिताजी गाड़ीवान से बोले---- रमेश देखो तो, यही वह जगह है, जिसके बारे में कल मुझे सलुवा ने बताया था, कहा था, ‘गावं से दूर, पहाड़ों की तलहटी में एक छोटा सा मंदिर है, वहीँ वह पुजारी है’?

गाड़ीवान गाड़ी से उतरकर,जगह का अच्छी तरह मुआयना कर कहा---- हाँ मालिक, लगता तो वही है|

अनाज की गठरी लिये गाड़ीवान, मैं और पिताजी, जब कुछ दूर पैदल चले, देखा---- झुरमुट -झाड़ियों के बीच एक छोटा सा मंदिर है, मंदिर के बाहर धूनी जल रही है, और भीतर एक पुजारी मंत्रजाप कर रहा है| हमलोग सभी उसकी पूजा ख़त्म होने के इंतजार में वहीँ मंदिर-प्रांगण में ही खड़े रहे| जब उसकी पूजा समाप्त हुई, उसने एक बार हमारी तरफ देखा, देखते ही दौड़ा, आकर पिताजी के चरणों पर सिर रखकर बैठ गया| वह कभी पैर को चूमता, कभी अश्रुजल से धोता, कभी अपनी पगड़ी से पोछता| यह सब देखकर, मेरे दिल में उस पुजारी की भक्ति ने कुछ ऐसा आवेग पैदा किया कि मैं रो पड़ी| बड़ा ही करुण दृश्य था, पिताजी भी उस पुजारी को अपने क़दमों पर से उठाकर अपने सीने से लगा लिये और बोले---- ‘आलम’, जब से तुमने मेरा घर छोड़ा है , तुम्हारे बगैर हम पूरे परिवार अधूरे हो गए हैं| तुम लौट चलो, तुम्हारे लिए यहाँ रहना संभव नहीं है| तुम बूढ़े हो चुके हो, भिक्षाटन कर पेट पालना संभव नहीं है|

आलम बात बदलकर कहा---- आपलोगों का यहाँ आना कैसे हुआ, मालिक! मेरा पता-ठिकाना कहाँ से मिला?

पिताजी, आँख का आँसू पोछते हुए बोले---- किसी ने नहीं; जब से तुमने घर छोड़ा, तुमको ढूंढने के लिए, मैं कहाँ-कहाँ नहीं गया, बस यही एक जगह बाकी रह गया था, जहाँ मैं कभी नहीं आया था| पिताजी की निराशा में डूबी हुई बातों को सुनकर पुजारी खड़ा-खड़ा रोता रहा, मगर मुँह से एक शब्द नहीं निकाला|

पिताजी ने आगे कहा---- ‘आलम’, अब तुम मेरे घर के नौकर नहीं रहे, तुम एक पुजारी हो| तुम्हारा भगवान, मैं नहीं; तुम्हारा भगवान तो मंदिर में बैठा वह मूरत है, जहाँ  तुम्हारी मुक्ति की राह खुलेगी| अब तक तुम्हारे जीवन का कोई आधार नहीं था, लक्ष्य नहीं था, न कोई व्रत था| मगर अब इनकी सेवा से तुम्हारे ह्रदय को एक गुप्त-शक्ति की भाँति, तुमको शांति और बल मिलेगा| फिर रुंधे कंठ से बोले---- ‘आलम’, कल तक तुमको पाकर मैं सोचता था, मुझे कोई रत्न मिल गया है, मगर तुमको खोकर मेरा सब छिन गया| बावजूद मैं खुश हूँ, कि तुम भोले के प्रकाश-स्तंभ में, अपने जीने की एक दूसरी धारा चुन लिये हो| अब जीवन-संशय की जगह एक सत्य मूर्तिमान हो गया|

‘आलम’, सजल -नेत्र होकर कहा---- मालिक! इनके शरण में तो मैं, मात्र महीने भर पहले आया हूँ, अभी तो मेरी इनसे भलीभाँति पहचान भी नहीं हुई है, पर आपकी छत्रछाया में तो मैं, जवान से बूढा हुआ| पूरे साठ साल का, उस घर से पहचान है मेरी| वह घर मेरे लिए घर नहीं, एक पवित्र मंदिर है और रहेगा|

‘आलम’ की बातों को सुनकर, पिताजी के चित्त की दशा वही थी, जो किसी महात्मा-संन्यासी के सामने, हम सबका होता है| ‘आलम’ की बात सुनकर, पिताजी की आँखें छलक आईं; उन्होंने नम्रता से कहा---- तुम्हारी बातों से प्रतीत होता है कि तुम उस जन्म में कोई सच्चरित्र साधुभक्त परोपकारी जीव था; तभी तुम ऐसी बातें कर पाते हो| मगर मैं कैसे भूलूँ कि अब तुम बूढ़े हो चुके हो| तुम्हारा शरीर ये फकीरी जिंदगी नहीं जी पायेगा| द्वार-द्वार जाकर भिक्षाटन करना, धूप-ठंढ में रहना अब संभव नहीं है| उस पर भोजन रूखा-सूखा, खाने का कोई निश्चित समय नहीं; कभी दोपहर खाया, तो कभी तीसरे पहर, प्यास लगी तो, तालाब का पानी पी लिया| बीमार पड़े तो दवा-दारू नहीं, यह सब झेलना काफी कष्टकर होगा| इसलिए मेरा कहा मानो, तुम घर लौट चलो, वहीँ बैठकर राम को भजना| ‘आलम’ कृतज्ञता भाव से कहा---- मालिक! मैं बहुत भाग्यशाली हूँ, जो मुझे आप जैसा मालिक मिला|

तभी गठरियों को लेकर पास खड़ा गाड़ीवान बोल पड़ा---- ये सब पुराने जमाने के विचार हैं, नया युग यह सब कहाँ मानता है| कहता है, मानवकृत सम्बन्धों की कोई हस्ती नहीं होती| ये रिश्ते आत्मा-परमात्मा के तो होते नहीं, जो युग-युगांतर चलाया जाय| मुझे समझ नहीं आ रहा कि यहाँ धर्म बड़ा है या न्याय|

पिताजी अपने अचकन का बटन लगाते हुए बोले---- दोनों ही, अपनी जगह श्रेष्ठ हैं, लेकिन जब ये दोनों शस्त्रबल और बुद्धिबल के सामने झुक जाते हैं, तब अन्याय और व्यभिचार उत्पन्न लेता है| जैसे चोट खाकर गिरे हुए अपने प्रतिद्वंदी पर शस्त्र न चलाना धर्म है, तो यही न्याय भी है|

 


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