Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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प्रायश्चित

 

प्रायश्चित

             नित बसंत के सपने सजोये, जीवन जीने वाले, घनश्याम के घर एक दिन सचमुच बसंत बनकर , उसका प्रपौत्र  (रूपदेव) जनम लिया| उसे गोद में भरते ही, उसके जोश, बल, दया, साहस, आत्मविश्वास, गौरव, मानो पवित्र, उज्ज्वल और पूर्ण हो गया| जब भी वह रूपदेव के सुन्दर, सुगठित शरीर को देखता था, उसका उदास मन चमक उठता था; लेकिन दूसरे ही पल घर की आर्थिक तंगी का ख्याल कर वह उसके भविष्य को सोचकर काँप उठता था| रूपदेव भी अपने दादा घनश्याम से बेहद प्यार करता था| दादा के काँधे से झूल रहे झोले को वह जब  भी देखता था, दादा के गले से लिपट जाता है| वह जानता था, दादाजी बाजार से लौट रहे हैं, तभी झोला उनके कंधे से लटक रहा है| इस झोले में टॉफी है, जब तक वह टॉफी ले नहीं लेता था, दादा के इर्द-गिर्द गिद्ध की तरह मंडराते रहता था, और अवसर पाते ही टॉफी निकालकर खाने बैठ जाता था|

                लेकिन आज पहली बार रूपदेव ने देखा---- दादा बाजार से लौटकर अपने झोले को सर के नीचे तकिया बनाकर आँगन में बिछे खटोले पर चुपचाप आँखें बंद कर लेट गए| रूपदेव भी,वहीँ दादा के बगल में, दादा की आँख खुलने की आस लिए बैठा-बैठा सो गया| यह सब देखकर नीरू (घनश्याम की पत्नी) को चिढ आ गई, वह खिन्न होकर बोली---- घनश्याम, तुम सो रहे हो, यह भी कोई सोने का वक्त है? उठो, देखो---- तुम्हारे बगल मे, कौन सो रहा है?

घनश्याम ने आँखें खोलकर देखा, तो उसकी आँखें भर आईं| वह व्यथित हो बोला---- माफ़ कर दे बेटा, मैं अपनी निष्ठुरता की वेदना के अंतर्नाद में तुझे भूल गया था| उसने रूपदेव की तरफ आर्द्र दृष्टि से देखते हुए कहा---- दरअसल नीरू, मैं आज एक अपराधी हूँ| मैंने एक बहुत बड़ा अपराध किया है, वह भी ऐसा अपराध, जिसकी क्षमा मंदिर, मस्जिद, गिरिजा घर, गुरु द्वारा कहीं नहीं है|

नीरू ने अचंभित हो पूछा---- कैसा अपराध, तुम किसकी बात कर रहे हो?

घनश्याम दुखी हो बोला---- जिसे मैं एक कसाई की तरह रोड पर तड़पता हुआ छोड़ आया, मैं उसकी बात कर रहा हूँ|

नीरू को घनश्याम की बात समझ नहीं आ रही थी, वह खिन्न हो बोली---- बुझौवल ही बुझाते रहोगे, या कुछ खुलकर बताओगे भी| मगर----

घनश्याम का बुझौवल जारी रहा, आगे बोला---- निर्मला (नीरू), मैं उन प्राणियों में नहीं हूँ, जो कहते हैं, स्त्री और पुरुष में समान शक्तियाँ हैं, उनमें कोई भिन्नता नहीं है| मैं कहता हूँ स्त्री, पुरुष से उतनी ही श्रेष्ठ है, जितना प्रकाश अँधेरे से| मनुष्य के लिए क्षमा, त्याग और अहिंसा जीवन के जो उच्चतम आदर्श हैं; स्त्री इन आदर्शों को प्राप्त कर चुकी है और पुरुष, धर्म, अध्यात्म और ऋषियों की शरण लेकर भी, उस लक्ष्य तक पहुँचने के लिए सदियों से जोर मार रहा है; परन्तु आजतक सफल न हो सका| नीरू को लगा, जैसे पहली बार उसने घनश्याम को अपने गृहस्थी के अखाड़े में पटकनी देकर आकाश तका दी|

उसने दीन स्वर में पूछा---- हाँ, तो तुमने अब तक यह बताया नहीं कि वो बच्चा कौन है घनश्याम, जिसे तुम सड़क पर घायल अवस्था में छोड़ आये?

घनश्याम बिना कुछ बताये आगे कहा---- नीरू, मैं प्राणियों के विकास में स्त्री के आसन को पुरुषों के आसन से उसी तरह श्रेष्ठ समझता हूँ, जिस तरह प्रेम, त्याग और श्रद्धा को हिंसा, संग्राम से श्रेष्ठ माना जाता है|

नीरू के धैर्य का बाँध टूट रहा था, उसने खिन्न हो पूछा---- अगर नहीं बताने का निश्चय कर आये हो, तो छोड़ो, मुझे बहुत काम है, मैं जाती हूँ|

घनश्याम, नीरू को रोकते हुए बोला---- जाना मत, नहीं तो तुम भी मेरी तरह पछताओगी|

निर्मला, हाथ जोड़कर बोली---- अब बताइये भी|

घनश्याम, एक लम्बी साँस फेंकते हुए बताया---- नीरू, आज जब मैंने जब बाजार से घर लौट वख्त, डूबते सूरज के आलोक में एक बाल -भिखारी के ह्रदय-हंस को गुम होते देखा, मैं विक्षिप्त हो उठा, लगता है, मैं कोई अपराधी हूँ, अपनी ही आँखों से आँख चुराये चलता हूँ| फिर अफसोस कर बोला---- काश! मैं उसे डाक्टर के यहाँ पहुँचाया होता; लेकिन अब पछताए क्या होगा? पता नहीं, वह ज़िंदा भी है, या----

निर्मला (नीरू),घनश्याम की आँखों में एक विचित्र दर्द को तैरते देख रही थी| उसे लगा, घनश्याम जिस तरह व्यथित है, उस बच्चे की याद में कहीं इसे न डाक्टर के यहाँ न ले जाना पड़े| उसने घनश्याम को समझाते हुए कहा---- अब तो बहुत देर हो गई; फिर भी अगर तुममें देरी से ही आदमियत जगी, तो क्या कम है? लोग तो उम्र भर गिरकर संभलना  नहीं चाहते| ऐसे उत्तरदायित्व का ज्ञान बहुधा हमारे संकुचित व्यवहारों का सुधारक होता है| मेरा दावा है कि, आज के बाद तुमको कभी पछताना नहीं पडेगा, क्योंकि तुम्हारी जमीर जाग चुकी है| पुरानी गलती ही ज्ञान बनकर तुम्हारा पथ-प्रदर्शक रहेगी|

घनश्याम, निर्मला की ओर देखकर प्रकृतिस्थ हो कहा---- नीरू! मैं वो अत्याचारी हूँ, जो समाज के भय से अपने कानों पर हाथ रखकर, पाप कहकर चिल्लाए जा रहा हूँ, जिसे दूसरा तो सुनता है, पर मैं खुद ही नहीं सुन पाता हूँ; कारण मैंने अपने दोनों कान बंद जो कर रखा है| अन्यथा उसकी चीख मेरे कलेजे को चीरकर, मुझे रुक जाने के लिए अवश्य मजबूर करती|

                बात करते-करते अचानक घनश्याम ने देखा----डूबते सूरज की  कमजोर किरणें उसके पास पड़े शीशे पर तड़प रही हैं| उसने झटपट अपने कंधे पर का गमछा, उस शीशे पर डाल दिया ताकि उसका तड़पना बंद हो जाए| किरणें गमछे पर आकर स्थिर हो गईं, मानो अब उसमें इतनी ताकत नहीं बची, कि तड़प भी सके| यह सब देखकर घनश्याम को बीते कल की घटना स्मृति हो आई| उसे लगा, वह मासूम भी, जो कल मेरे ऑटो से धक्का खाकर, बीच  सड़क पर, कटे पेड़ की तरह गिर गया था; कुछ देर इसी तरह तड़पा होगा, और फिर शांत हो गया होगा|

नीरू संज्ञाहीन सी, घनश्याम की तरफ टक लगाए उसकी बातों को सुन रही थी; वह व्यथित हो, वेदना स्वर में बोली---- मैं समझ रही हूँ घनश्याम, तुम्हारे दर्द को, जो अपराध तुमसे अनजाने अवस्था में हो गया, आज उसके लिए खुद को अपराधी बोध कर रहे हो| लेकिन घनश्याम, अब उन घटनाओं को भूल जाने की कोशिश करो| इतने समय बीत जाने के बाद, अब तुम चाह कर भी उस मासूम की मदद नहीं कर सकते| मगर एक बात याद रखो, भूत का भार आदमी का मन ही नहीं, कमर भी तोड़ देता है| इसमें जीवन-शक्ति इतनी कम हो जाती है, कि इसे भूत-भविष्य में फैला देने से भी यह मद्धिम नहीं होता| तुम व्यर्थ में अपनी भूल के लिए पश्चाताप के मलबे के नीचे दबे जा रहे हो, बल्कि आइंदा ऐसी गलती न हो; इसके लिए तुम, खुदा को गवाह रखकर, यह शपथ लो कि ऐसी गलती फिर नहीं करूँगा, तभी अपने मानव धर्म को पूरा कर सकोगे| पश्चाताप मोक्ष की प्राप्ति नहीं करा सकता, बल्कि मानवता के ख्याल को और कमजोर कर देता है| वह ज्ञान जो मानवता को पीस द , वह ज्ञान नहीं कोल्हू है| पश्चाताप करते-करते, प्राण ही निकल जाए, तो देह किस काम का, इसलिए पश्चाताप को छोडो, बल्कि आगे ऐसा न हो, इसके लिए सचेत रहो|

              घनश्याम, नीरू की बात का बिना कुछ जबाव दिए धीरे-धीरे उस खटोले की ओर चल दिया, जिस पर रूपदेव, टॉफी की आस लिए सो रहा था| उसने रूपदेव को नींद से जगाया, चूमा, फिर पूछा---- आज आपको टॉफी नहीं चाहिए?

रूपदेव, आँख खोलते ही दादा की छाती से लगकर गले से चिपककर, बोला---- दादाजी! टॉफी दीजिये न|

घनश्याम, झोले से दो टॉफी निकाला और रूपदेव की ओर बढाते हुए कहा---- ये लीजिये टॉफी|

रूपदेव, आतुर हो टोफियों की तरफ लपका, जिसे अपलक नज़रों से घनश्याम निहारता रहा| फिर नीरू से कहा---- एक भूल को सुधारने की चिंता में, मैं आज दूसरा भूल कर रहा था, मुझे माफ़ कर दो|

 

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