प्रायश्चित
नित बसंत के सपने सजोये, जीवन जीने वाले, घनश्याम के घर एक दिन सचमुच बसंत बनकर , उसका प्रपौत्र (रूपदेव) जनम लिया| उसे गोद में भरते ही, उसके जोश, बल, दया, साहस, आत्मविश्वास, गौरव, मानो पवित्र, उज्ज्वल और पूर्ण हो गया| जब भी वह रूपदेव के सुन्दर, सुगठित शरीर को देखता था, उसका उदास मन चमक उठता था; लेकिन दूसरे ही पल घर की आर्थिक तंगी का ख्याल कर वह उसके भविष्य को सोचकर काँप उठता था| रूपदेव भी अपने दादा घनश्याम से बेहद प्यार करता था| दादा के काँधे से झूल रहे झोले को वह जब भी देखता था, दादा के गले से लिपट जाता है| वह जानता था, दादाजी बाजार से लौट रहे हैं, तभी झोला उनके कंधे से लटक रहा है| इस झोले में टॉफी है, जब तक वह टॉफी ले नहीं लेता था, दादा के इर्द-गिर्द गिद्ध की तरह मंडराते रहता था, और अवसर पाते ही टॉफी निकालकर खाने बैठ जाता था|
लेकिन आज पहली बार रूपदेव ने देखा---- दादा बाजार से लौटकर अपने झोले को सर के नीचे तकिया बनाकर आँगन में बिछे खटोले पर चुपचाप आँखें बंद कर लेट गए| रूपदेव भी,वहीँ दादा के बगल में, दादा की आँख खुलने की आस लिए बैठा-बैठा सो गया| यह सब देखकर नीरू (घनश्याम की पत्नी) को चिढ आ गई, वह खिन्न होकर बोली---- घनश्याम, तुम सो रहे हो, यह भी कोई सोने का वक्त है? उठो, देखो---- तुम्हारे बगल मे, कौन सो रहा है?
घनश्याम ने आँखें खोलकर देखा, तो उसकी आँखें भर आईं| वह व्यथित हो बोला---- माफ़ कर दे बेटा, मैं अपनी निष्ठुरता की वेदना के अंतर्नाद में तुझे भूल गया था| उसने रूपदेव की तरफ आर्द्र दृष्टि से देखते हुए कहा---- दरअसल नीरू, मैं आज एक अपराधी हूँ| मैंने एक बहुत बड़ा अपराध किया है, वह भी ऐसा अपराध, जिसकी क्षमा मंदिर, मस्जिद, गिरिजा घर, गुरु द्वारा कहीं नहीं है|
नीरू ने अचंभित हो पूछा---- कैसा अपराध, तुम किसकी बात कर रहे हो?
घनश्याम दुखी हो बोला---- जिसे मैं एक कसाई की तरह रोड पर तड़पता हुआ छोड़ आया, मैं उसकी बात कर रहा हूँ|
नीरू को घनश्याम की बात समझ नहीं आ रही थी, वह खिन्न हो बोली---- बुझौवल ही बुझाते रहोगे, या कुछ खुलकर बताओगे भी| मगर----
घनश्याम का बुझौवल जारी रहा, आगे बोला---- निर्मला (नीरू), मैं उन प्राणियों में नहीं हूँ, जो कहते हैं, स्त्री और पुरुष में समान शक्तियाँ हैं, उनमें कोई भिन्नता नहीं है| मैं कहता हूँ स्त्री, पुरुष से उतनी ही श्रेष्ठ है, जितना प्रकाश अँधेरे से| मनुष्य के लिए क्षमा, त्याग और अहिंसा जीवन के जो उच्चतम आदर्श हैं; स्त्री इन आदर्शों को प्राप्त कर चुकी है और पुरुष, धर्म, अध्यात्म और ऋषियों की शरण लेकर भी, उस लक्ष्य तक पहुँचने के लिए सदियों से जोर मार रहा है; परन्तु आजतक सफल न हो सका| नीरू को लगा, जैसे पहली बार उसने घनश्याम को अपने गृहस्थी के अखाड़े में पटकनी देकर आकाश तका दी|
उसने दीन स्वर में पूछा---- हाँ, तो तुमने अब तक यह बताया नहीं कि वो बच्चा कौन है घनश्याम, जिसे तुम सड़क पर घायल अवस्था में छोड़ आये?
घनश्याम बिना कुछ बताये आगे कहा---- नीरू, मैं प्राणियों के विकास में स्त्री के आसन को पुरुषों के आसन से उसी तरह श्रेष्ठ समझता हूँ, जिस तरह प्रेम, त्याग और श्रद्धा को हिंसा, संग्राम से श्रेष्ठ माना जाता है|
नीरू के धैर्य का बाँध टूट रहा था, उसने खिन्न हो पूछा---- अगर नहीं बताने का निश्चय कर आये हो, तो छोड़ो, मुझे बहुत काम है, मैं जाती हूँ|
घनश्याम, नीरू को रोकते हुए बोला---- जाना मत, नहीं तो तुम भी मेरी तरह पछताओगी|
निर्मला, हाथ जोड़कर बोली---- अब बताइये भी|
घनश्याम, एक लम्बी साँस फेंकते हुए बताया---- नीरू, आज जब मैंने जब बाजार से घर लौट वख्त, डूबते सूरज के आलोक में एक बाल -भिखारी के ह्रदय-हंस को गुम होते देखा, मैं विक्षिप्त हो उठा, लगता है, मैं कोई अपराधी हूँ, अपनी ही आँखों से आँख चुराये चलता हूँ| फिर अफसोस कर बोला---- काश! मैं उसे डाक्टर के यहाँ पहुँचाया होता; लेकिन अब पछताए क्या होगा? पता नहीं, वह ज़िंदा भी है, या----
निर्मला (नीरू),घनश्याम की आँखों में एक विचित्र दर्द को तैरते देख रही थी| उसे लगा, घनश्याम जिस तरह व्यथित है, उस बच्चे की याद में कहीं इसे न डाक्टर के यहाँ न ले जाना पड़े| उसने घनश्याम को समझाते हुए कहा---- अब तो बहुत देर हो गई; फिर भी अगर तुममें देरी से ही आदमियत जगी, तो क्या कम है? लोग तो उम्र भर गिरकर संभलना नहीं चाहते| ऐसे उत्तरदायित्व का ज्ञान बहुधा हमारे संकुचित व्यवहारों का सुधारक होता है| मेरा दावा है कि, आज के बाद तुमको कभी पछताना नहीं पडेगा, क्योंकि तुम्हारी जमीर जाग चुकी है| पुरानी गलती ही ज्ञान बनकर तुम्हारा पथ-प्रदर्शक रहेगी|
घनश्याम, निर्मला की ओर देखकर प्रकृतिस्थ हो कहा---- नीरू! मैं वो अत्याचारी हूँ, जो समाज के भय से अपने कानों पर हाथ रखकर, पाप कहकर चिल्लाए जा रहा हूँ, जिसे दूसरा तो सुनता है, पर मैं खुद ही नहीं सुन पाता हूँ; कारण मैंने अपने दोनों कान बंद जो कर रखा है| अन्यथा उसकी चीख मेरे कलेजे को चीरकर, मुझे रुक जाने के लिए अवश्य मजबूर करती|
बात करते-करते अचानक घनश्याम ने देखा----डूबते सूरज की कमजोर किरणें उसके पास पड़े शीशे पर तड़प रही हैं| उसने झटपट अपने कंधे पर का गमछा, उस शीशे पर डाल दिया ताकि उसका तड़पना बंद हो जाए| किरणें गमछे पर आकर स्थिर हो गईं, मानो अब उसमें इतनी ताकत नहीं बची, कि तड़प भी सके| यह सब देखकर घनश्याम को बीते कल की घटना स्मृति हो आई| उसे लगा, वह मासूम भी, जो कल मेरे ऑटो से धक्का खाकर, बीच सड़क पर, कटे पेड़ की तरह गिर गया था; कुछ देर इसी तरह तड़पा होगा, और फिर शांत हो गया होगा|
नीरू संज्ञाहीन सी, घनश्याम की तरफ टक लगाए उसकी बातों को सुन रही थी; वह व्यथित हो, वेदना स्वर में बोली---- मैं समझ रही हूँ घनश्याम, तुम्हारे दर्द को, जो अपराध तुमसे अनजाने अवस्था में हो गया, आज उसके लिए खुद को अपराधी बोध कर रहे हो| लेकिन घनश्याम, अब उन घटनाओं को भूल जाने की कोशिश करो| इतने समय बीत जाने के बाद, अब तुम चाह कर भी उस मासूम की मदद नहीं कर सकते| मगर एक बात याद रखो, भूत का भार आदमी का मन ही नहीं, कमर भी तोड़ देता है| इसमें जीवन-शक्ति इतनी कम हो जाती है, कि इसे भूत-भविष्य में फैला देने से भी यह मद्धिम नहीं होता| तुम व्यर्थ में अपनी भूल के लिए पश्चाताप के मलबे के नीचे दबे जा रहे हो, बल्कि आइंदा ऐसी गलती न हो; इसके लिए तुम, खुदा को गवाह रखकर, यह शपथ लो कि ऐसी गलती फिर नहीं करूँगा, तभी अपने मानव धर्म को पूरा कर सकोगे| पश्चाताप मोक्ष की प्राप्ति नहीं करा सकता, बल्कि मानवता के ख्याल को और कमजोर कर देता है| वह ज्ञान जो मानवता को पीस द , वह ज्ञान नहीं कोल्हू है| पश्चाताप करते-करते, प्राण ही निकल जाए, तो देह किस काम का, इसलिए पश्चाताप को छोडो, बल्कि आगे ऐसा न हो, इसके लिए सचेत रहो|
घनश्याम, नीरू की बात का बिना कुछ जबाव दिए धीरे-धीरे उस खटोले की ओर चल दिया, जिस पर रूपदेव, टॉफी की आस लिए सो रहा था| उसने रूपदेव को नींद से जगाया, चूमा, फिर पूछा---- आज आपको टॉफी नहीं चाहिए?
रूपदेव, आँख खोलते ही दादा की छाती से लगकर गले से चिपककर, बोला---- दादाजी! टॉफी दीजिये न|
घनश्याम, झोले से दो टॉफी निकाला और रूपदेव की ओर बढाते हुए कहा---- ये लीजिये टॉफी|
रूपदेव, आतुर हो टोफियों की तरफ लपका, जिसे अपलक नज़रों से घनश्याम निहारता रहा| फिर नीरू से कहा---- एक भूल को सुधारने की चिंता में, मैं आज दूसरा भूल कर रहा था, मुझे माफ़ कर दो|
लांछन
किशोर अपने मित्र रमेश से कहता है---- जानते हो रमेश! अपना पड़ोसी कुंवर तो यही जानता है कि उसकी पत्नी शीला घोर पतिव्रता है; राह चलते उसकी आँखें जमीन पर से ऊपर उठतीं नहीं, लेकिन उसे यह नहीं पता, कि शीला का मन फुदकने वाली चिड़िया है, जो कभी इस डाल, तो कभी उस डाल, जब उसके ऑफिस चले जाने के बाद वह बन-ठन कर, खिड़की पर खड़ी होती है| तब मोहल्ले के शोहदे उसे देख-देखकर जानते हो, क्या बोलते हैं?
रमेश (किशोर का पडोसी) रक्त-शोषक दृष्टि से किशोर की तरफ देखकर कहा---- नरक में जाओगे तुम, ऐसी बातें मुँह से निकालते तुम्हें शर्म नहीं आती, किसी और के बारे में बोला होता, तब मान भी जाता, तुम शीला बेटी के बारे में बोल रहे हो; धिक्कार है तुमको| अरे! वह तो एक देवी है, देवी, ईश्वर की परम भक्तिन, नींद खुलते ईशोपासना में लग जाती है| माँ काली की मूर्ति को नहला—धुलाकर, फूलमाला चढ़ाकर पहले आरती करती है, बाद अपने पेट-पूजा की व्यवस्था करती है, और तुम उस पर यह लांछन लगा रहे हो, कि वह बदचलन है| तुम जीते जी नरक में जावोगे|
रमेश की बात ख़तम होते ही किशोर जोर-जोर से खिल-खिलाकर हँसने लगा| किशोर के इस कदर हँसने का आशय रमेश को समझाने में देर न लगी, कि इस हँसी में व्यंग्य के कितने जहर घुले हुए हैं| रमेश कुछ देर चुप रहा, फिर कहा---- क्या अपने जीवन को रसमय बनाने के लिए तुम्हारे पास केवल एक ही उपाय है| चलो अच्छा है, आत्मविस्मृति, जो एक क्षण के लिये भी अगर संसार की चिंताओं से मुक्त कर दे, तो क्या कम है?
रमेश की बात सुनकर , किशोर की आँखों से आग झरने लगा| वह रक्त शोषक नजरों से, रमेश की ओर देखकर बोला---- तुम क्या सोचते हो, अपने स्वार्थवश मैंने, कुंवर की धर्मपत्नी का यह सब बोलकर अहित किया|
रमेश गंभीर हो कहा---- बिल्कुल ठीक कहा तुमने, एक अबला पर लांछन लगाकर, जो किया, उसके प्रायश्चित में आगे का जीवन मुँह की कालिमा धोने में लगा दो, तो उपयुक्त होगा|
रमेश की तरह, किशोर तार्किक और व्यवहार चतुर नहीं था, इसलिए वहाँ से चले जाने में ही उसने अपनी भलाई समझी|
एक दिन किशोर की बेटी सुनीता से अचानक रास्ते में रमेश की मुलाक़ात हो गई| सुनीता, देखते ही दूर से बोली---- हेलो चाचा! कैसे हैं?
रमेश सकपकाते हुए कहा---- ठीक हूँ, बेटी, बाजार जा रहा हूँ दवाई लाने, और मन ही मन कहा---- हमारी सभ्यता का आदर्श इतना ऊपर उठ चुका है, कि अब अपने पिता समान बड़े बुजुर्ग का पैर छूने में घृणा होती है| इससे तो अच्छी शीला है जो देखते ही घूँघट खींच लेती है, और दोनों हाथों से पैर छूकर, आशीर्वाद माँगती है| क्या ही कुलीन परिवार से है! ऐसे गऊ को बदनाम करना पाप है; अपना घर तो सँभालता नहीं, चला है, दूसरे की बहू-बेटियों की निंदा और बदनाम करने|
दोपहर का वक्त था, कुंवर (शीला का पति) रमेश के घर आया और बातों-बातों में बताया---- चाचा, शीला कई दिनों से बीमार है, इसलिए एक बार चलकर देख लेते| मेरे पिताजी का कहना है कि रमेश चाचा को अगर एक बार दिखा सको, तो वह जल्द ठीक हो जायगी, क्योंकि वे एक पढ़े-लिखे वैद्य हैं| उन्होंने रोग-दुःख की ही तो पढ़ाई की है, इसलिए मेरी आपसे निवेदन है, कि एक बार आप चलकर शीला को देख लेते|
रमेश मुस्कुराते हुए कहा---- चलो, मैं अभी आता हूँ|
कुंवर---- अच्छा कहकर घर जाने लगा, और मन ही मन यह सोचता रहा---- सचमुच पिताजी ने जैसा बताया था, वैसे ही हैं रमेश चाचा| ऐसे आदमी के लिए धन तुच्छ है, वरना पूछते, कि मेरी फ़ीस जानते हो!
सचमुच सभ्यता से ऊँचा, धन का स्थान नहीं होता| जो आदमी पैसे को भगवान समझते हैं, वे सभ्य नहीं हैं| ऐसे मनुष्य संसार के लिए अभिशाप हैं, और समाज के लिए विपत्ति|
रमेश चाचा जब, किशोर के दरवाजे पर पहुँचे, देखा ऊपर की खिड़कियाँ बंद हैं| अचरज हुआ, जो खिड़कियाँ कभी बंद नहीं होती थीं, वह बिलकुल बंद है| उन्हें चिंता होने लगी, उनका विस्मित कदम बढ़ता हुआ आँगन में एक चारपाई के पास जाकर रुक गया, देखा---- शीला लेटी हुई है ,उसकी आँखें खुली हैं, मगर शरीर अचेत है| उन्होंने उसे धीरे से आवाज दी---- शीला! मैं रमेश चाचा; पहचान रही हो बेटा| सुनते ही जाने शीला में कहाँ से वो ताकत आ गई, कि वह बिजली की तरह उठकर बैठ गई| घूँघट निकाल कर मुँह ढँक ली और शिकायत के स्वर में बोली---- चाचा! जिस निधि को पाकर मैं विपत्ति को संपत्ति समझकर जी रही थी, जिस दीपक से आशा, धैर्य और अवलंब पा रही थी, मुझे क्या पता था कि वह मेरे अंधकारमय जीवन का दीप नहीं है| उसकी बातों को सुनकर रमेश चाचा विचलित हो उठे और पूछा---- बेटी! यह आज तुमको क्या हो गया है? अभी तुम बीमार हो, कमजोर हो; ऐसी हालत में इस कदर की बातें करना ठीक नहीं है| लेकिन शीला,जिस विभूति को पाकर, ईश्वर की निष्ठा और भक्ति, उसके रोम-रोम में व्याप्त हो गई थी; वह विभूति उससे जबरन छिन गई थी| वह अस्थिर नेत्रों से रमेश की ओर देखकर बोली---- चाचा! आप कहते हैं, चित्त को शांत रखो और बताओ, तुमको क्या हुआ है? चाचाजी---- क्या आप भी यही जानते हैं, जो मैं जानती हूँ?
रमेश, निराशा से विकल हो बोला---- तुम क्या जानती हो बेटी?
अशक्त, क्षीण शीला बोली---- मैं पथभ्रष्ट और पत्नोन्मुखी हूँ|
रमेश, समझ गया---- यह आग किसने लगाया है?
रमेश, सम्मान भरे शब्दों में कहा---- पानी पर जब तक कोई आवरण है, उसमें सूर्य का प्रकाश नहीं पहुँच सकता, अर्थात लज्जा, शील, और सभ्यता की लौह दीवार को, संस्कारी नहीं तोड़ सकता| यह काम तो किशोर जैसा भ्रष्ट और निष्ठुर ही कर सकता है| शीला आँखें नीचे किये बोली---- मगर वे आपके मित्र हैं|
रमेश, उपेक्षा भाव से कहा---- साँप में विष है, यह जानते हुए भी हम उसे दूध पिलाते हैं| भोग-लिप्सा आदमी को स्वार्थांध बना देती है, लेकिन उसकी आत्मा इतने कम उम्र में इतनी अभ्यस्त और कठोर कैसे हो गई, कि एक निरपराध की आत्मा की ह्त्या कर दे| मैं उससे अभी जाकर बात करता हूँ, सब ठीक हो जायगा|
शीला, भर्राई आवाज में पूछी---क्या ठीक हो जायगा, चाचा? आप किसके पास जा रहे हैं, आप तो स्वयं एक डॉ. हैं, दवाईयाँ तो दिये नहीं, मैं कैसे ठीक हो जाऊँगी?
रमेश---- न्याय-बुद्धि, किसी युक्ति को नहीं स्वीकारता, तुमको मृत्यु के पंजे में पहुँचाने वाला, मेरा दोस्त किशोर है, जो पूजा, तप, व्रत को अपने जीवन का आधार बताता है; विलास ने उसके विवेक -बुद्धि को सम्मोहित कर दिया है| उसे कभी ख्याल भी नहीं आता है, कि वह जो कर रहा है, वह पाप है| उसके हाथों कितने के घर टूट रहे हैं? कितने बेगुनाह बेसमय मौत पाये हैं? उसे एकांत विचार का अवसर ही नहीं मिलता, वह मनोरंजन के लिए नित्य नया सामान जुटाता है| यह सब कर उसे अपना सौभाग्य, सूर्य उदय होता हुआ मालूम होता है| उसके हाथों कितने घरों की बर्बादी हुई, कितने घर लुटे, कितने घर टूटे; उसे खुद भी पता नहीं होगा| मगर तुम आज के बाद किसी प्रकार की चिंता छोड़ दो| सब ठीक कर दूँगा, किशोर से मिलकर|
एक शाम, ऑफिस से लौट रहे किशोर से रमेश की भेंट हो गई| उन्होंने किशोर का हाल-समाचार पूछा| किशोर ने कहा---- सब ठीक है, मगर बताया आप कहाँ से आ रहे हैं? रमेश ने बताया---- शीला बहुत बीमार है, कमजोरी इतनी है कि दो-चार वाक्य बोलने के बाद ही वह शिथिल हो जाती है| दश-पाँच मिनट अचेत पड़ी रहती है, कदाचित वह किसी चिंता की चिता पर लेटी हुई है| यह सब देखने के बाद मुझे भीषण प्राण-वेदना हो रही है|
रमेश क्षुधित नेत्रों से, किशोर की तरफ देखकर बोला---- शीला की मनोव्यथा, उसकी व्यथा से कहीं अधिक विदारक है| यह कहते, रमेश का चेहरा उतर आया| आँखें बोझिल हो आईं, बोला --- तुम नहीं जानते, उसने तो पतिव्रता की वेदी पर अपने को अर्पित कर रखी है| पति को पास न पाकर, उसे लगता है, यह घर सूना है, यहाँ अंधेरे का वास है| तब वह उसे ढूंढने खिड़की पर जा खड़ी होती है, ताकि उसकी यादों के चेहरे के उजाले में रह सके और तुमने उस पर लांछन लगाया कि वह बदचलन है| रमेश फिर कोमलता में ,डूबे हुए स्वर में बोला---- ईश्वर ने जिसे ह्रदय-परख दी है, वह आदमी का पोशाक नहीं देखता, उसके गुण और चरित्र देखता है| तुमको कैसे समझाऊँ कि प्रत्येक प्राणी के अन्दर मान-सम्मान की क्षुधा होती है, इसलिए कि यही तो हमारे आत्मविकास की मंजिल है| हम उस महान सत्ता के सुक्षांश हैं, जो समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त है| इसलिए कृति, सम्मान, आत्मोन्नति और ज्ञान की ओर हमारी स्वाभाविक रूचि है| मैं तो इस लालसा को बुरा नहीं मानता, अर्थात् शीला अगर खिड़की के पास खड़ी रहती है, अपने आत्म-उत्सर्ग के लिए, न कि किसी और की चाह में| तभी ऑफिस से लौट रहे कुंवर की नजर, रमेश चाचा और किशोर पर पड़ी| वह नजदीक आकर, पहले तो दोनों का पैर छूआ, फिर पूछा---- चाचा, आप दोनों यहाँ, कोई बात है क्या?
रमेश, कुंवर का बिना कुछ जवाब दिए वहाँ से यह कहते हुए चल दिया कि मैं ज़रा जल्दी में हूँ, फिर कभी बात करूँगा| किशोर के चले जाने के बाद, रमेश चाचा, कुंवर को समझाते हुए बोले---- मिथ्या संसार रचने वाले प्राणी से दूर रहो, अन्यथा वह आज शीला पर, कल तुम पर, कुछ ऐसा ही लांछन लगा देगा क्योंकि उसकी कुटिल नीति का साहस दिनों-दिन बढ़ता चला जायगा| उसकी हिंसक मनोवृतियाँ और शक्तिवान होती चली जायेंगी|
रमेश कुछ देर चुप रहा, फिर आहत कंठ से कहा---- शीला की कर्तव्यपरायणता, प्रेम, उसकी धर्मपरायणता, उसकी पतिभक्ति, उसके स्वार्थ-त्याग, उसकी सेवा-निष्ठा, कौन से गुण की मैं तुम्हारे आगे प्रशंसा करूँ, समझ नहीं आता; वह पति-वंचित होकर सड़क पर भटकती फिरे, क्या तुम यह चाहते हो? क्या इतनी निष्ठा, इतना त्याग, इतना विमर्श किसी देवी-प्रेरणा का परिचायक नहीं है? हम अक्सर दूसरों की बातों में आकर पथभ्रष्ट हो जाते हैं और किसी के झूठ पर पश्चाताप करके, भोग-विलासयुक्त जीवन को ठुकराकर फटेहालों का जीवन बिताने के लिए, किसी और को अपराधी ठहरा देते हैं| ऐसा करके कुंवर, तुम दुनिया के सामने न्याय का कोई ऊँचा आदर्श तो नहीं उपस्थित करना चाहते हो? धर्म और आदर्श की जगह, बहुत आदर की जगह होती है| अपनी आँखें तो सही देखती नहीं, तुम दूसरों की निगाह से शीला को देख रहे हो, जो घोर पाप है|
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