Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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संध्या

 

संध्या



निस्सीमता  के  अतल  गर्भ  से

अग्नि स्तंभ सा उठ,धरा प्राणी के

जीवन कंदर्प में,पावक भरने वाला

सूरज  के  क्षितिज  में छिपते ही

मनुज  वक्षके, तप्त चुम्बन को

शीतल करने  ,  स्वप्नशायिनी 

प्रेयसी सी परिचित, ज्योति, प्रीति

और  आनंद मधुरिमा  से स्पंदित

हृद़्  लिये, आसमांसे उतर आई

लाज  सी लजीली,सुकुमारी संध्या


नभ  आँगन में ,कुंद कलियाँ खिल गईं

मंदिरमें   शंख , घंटबजने  लगे

जगमें जगलयहोनेलगा

दूर क्षितिज में उड़ रहे विहंगों की पाँति 

छोड़ अम्बर , नीड़में  लौट  आये

निखिल  विश्व में आनंद, छंद सा प्राण 

तरंगित  होने  लगा , चटक -चटककर

आग   बरसाती कलियाँ , धरती  के

चरणों  में  शील  नत  हो  झुक  गईं

मानो  धरा  की, स्वीकार रही हो सत्ता






रश्मियाँ अप्सराएँ बन ,भोगेच्छा से ग्रसित

देवेन्द्र को रिझाने ,क्षितिज में नाचने लगीं

चाँद की अर्द्ध विवृत,जघनों पर सर रखकर

स्वर्णिम  स्वप्नों  में  चन्द्रिका  खो  गई 

जग –धरणी  ताप -शाप  मुक्त  हो  गई

दिशि- दिशि में, मनोमय जीवन भर आया

उर - उरमें गुंजने  लगी  मधुकांक्षा

विश्रांति  की  रेखा मिट, शांति उभर आई

शांत  संध्या सलज्ज मुख, नौका को छोड़

किनारे पर विश्राम करने लौट आये खेवैया



विश्व कमल के अणु-अणु से

आनंद सुधारस छ्लकने लगा

सब की आँखें प्रेम ज्योति से

प्रतिफ़लित  हुईं, जड- चेतन

दोनो , ही सुंदर साकार बना

तरु छाया  हिल - डुलकर

थके प्रेमियोंके ऊपर

बरसाने लगी ,  शीतलता

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