संध्या
सुंदर सुरभिमय, कोमल शांत सलीका
ज्यों गुंठन से निकली हो नव कलिका
नयन में अलस , अनुराग लिये, धरा पर
वासना भरी , सरिता सी बहने वाली
तुम कौन हो,किस नभ से उतरी हो सहसा
खोल दो अपने रहस्य का द्वार
और बतला दो विश्व को आज
लज्जावती लता सी संकुचित
क्यों ,छिपी रहती हो, अपने में आप
आधी खुली,आधी बंद,न निशा,न प्रात
आखिर किस बात पर कर रखी हो
तुम इतना नशा , कि तुमको
दीखता नहीं कुछ आस - पास
अंधकार , प्रकाश से लेकर शक्ति
धरा पर, आनंद सुमन सी विकसी
तुम किस अकुल की फ़ूल हो
नभ में कब से बिना मूल हो
बिना अवलंब निखिल सृष्टि में कैसे फ़ैली
व्याप रही हो, कुछ तो कहो बालिका
पसीने से भरे,थके श्रमी जीवों को
अपने शीतल आँचल से हवा कर
झील, झाँईं , नभ – शशि - तारे
सबको अपनी गोदी में देती हो
यह कहकर विश्राम, कि बैठ यहाँ
कुछ पल , उतार ले थकान
अपने जीवन घट में सुधा भर ले
दिन भर बहुत किया विष पान
नभ के शून्य गुफ़ा में रहने वाली
तुममें इतनी मधुरिमा कहाँ से आई
कि देखते ही तुझे भुजंग कुंडली मार
बैठ जाता, दिन भर धरा को वारुणी
जल से नहलाने वाला,नतमस्तक होकर
तुम्हारी सत्ता को स्वीकारता दिनमान
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