Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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संतान सुख

 

संतान सुख


               रामदास और उसकी पत्नी, मैना दोनों ही 60 के ऊपर हो चले थे ,मगर चमड़ी पर झुर्रियाँ अभी तक नहीं आई थीं, न ही बिच्छू के डंक की तरह दीखनेवाली रामदास की मूँछें पूरी तरह सफ़ेद हुई थीं; लेकिन जीवन की किसी अलभ्य अभिलाषा से रिक्त, दोनों ही प्राणी मानसिक चोट से घायल रहा करते थे, जिसके कारण उनकी याददाश्त कम होने लगी थी। कभी-कभी तो दिन और तारीख भी भूल जाय्य करते थे, तब पड़ोस के मुन्ना (10 साल का) से पूछना पड़ता था।

            रामदास का पारिवारिक जीवन सुखमय नहीं था। ऐसे तो भगवान के दिये दो बेटों का वह बाप था; लेकिन दोनों ही बेटे और बहुएँ जब भी मिलते थे, दुश्मन से खड़े मिलते थे। इसलिए दोनों पति-पत्नी कभी जीवन का आनंद भोग नहीं कर सके। घर मे धन-दौलत, हर चीज के रहते हुए भी दोनों को कभी-कभी निराहार रह जाना पड़ता था। भोजन पकाने के समय उनकी बहुओं के बीच ऐसा साम्यवाद का गगनभेदी निर्घोष होता था, कि दोनों पति-पत्नी के लिए भूखे सोना ज्यादा सुखकर होता था, बावजूद दोनों प्राणी को, अपने परिवार के धैर्य-शून्य लोगों से कोई शिकायत नहीं थी। वे कभी उनकी बातों का जवाब नहीं देते थे, बल्कि गाम्भीर्य से शिर झुकाये, सब कुछ सुनते रहते थे, मगर सुबह उठकर चाय पीने की बुरी लत, उन्हें रोज रुला दिया करती थी, जब उन्हें कुल्हड़ों की संख्या, दो कम दीखती थी। 

             रामदास, मैना से कहा करते थे---- मैना! जब से बेटों की शादी दी, तब से शायद ही कोई ऐसा दिन आया, जिस दिन हम दोनों को बेटे-बहुओं से कटु शब्द सुनने नहीं पड़े। जानती हो, जब मैं सो जाता हूँ, तब भी उनलोगों की विषैली आवाज रूपी शर मेरे हृदय में चुभती रहती है जिसका घाव रात भर दर्द करता है, और मैं सो नहीं पाता हूँ। मैं सोचता हूँ, दूर जाकर कहीं आत्महत्या कर लूँ; जिससे लाश उठाने की भी इनलोगों को परेशानी न आये। कौवे –चील नोंच-नोंच कर खा जायेंगे, जैसे ये लोग खा रहे हैं, लेकिन तुम्हारी चिंता मुझे मरने भी नहीं देती। जब सोचता हूँ, कि मेरे रहते तुमको कोई भला वचन नहीं कहता, मेरे जाने के बाद क्या होगा? ऐसे तो मैं तुम्हारी तकलीफ़ को जरा भी कम नहीं कर सकता, लेकिन तुम्हारे साथ बैठकर रो तो सकता हूँ। इसी ख्याल से मैं मर भी नहीं सकता।

            पति की बातों को सुनकर मैना की आँखों से दुखाश्रु, नदी बन बहने लगती थी। वह रोती हुई कहती थी--- प्रिय! अपनों के दिये चोट को सहते-सहते अब मैं थक चुकी हूँ। जितनी पीड़ा तुमको हो रही है, तुम्हारे होते मुझे उतनी पीड़ा नहीं होती क्योंकि मैं जानती हूँ, दुख की आँधी तेज है; लेकिन तुम्हारा साथ क्या कम है, उसे झेलने के लिए? 

मैना की बातों को सुनकर रामदास, अपनी भुजाओं में अलौकिक पराक्रम का अनुभव करने लगता था। उसकी हृदयाग्नि मुख तक पहुँच जाती थी, और हर्ष से उसका मुखमंडल अग्नि में कमल समान खिल जाता था। वह कहता था---- प्रिये! इस शब्द में विलक्षण मंत्र की शक्ति है।            

अब मैं जीवन की इस गोधूलि वेला में भी फ़िर से पहाड़ चढ़ सकता हूँ, उड़कर आकाश को छू सकता हूँ, पर्वतों को चीर सकता हूँ। एक क्षण के लिए उसे अपने जीवन से ऐसी तृप्ति मिली थी, मानो उसकी सारी अभिलाषाएँ पूरी हो गईं हो। अब तो साक्षात शिव भी आकर कहे---- ’रामदास माँगो, क्या चाहिये? तो अपना मुँह फ़ेरकर कहेगा--- कुछ नही”। वह संसार के सबसे अधिक भाग्यशाली लोगों में खुद को समझने लगा, लेकिन मैना अपने स्वार्थ नीति से विद्रोह नहीं कर सकी और सिसकती हुई बोली---- याद करो रामदास! जब हमारे दोनों बच्चे छोटे थे, तब हम दोनों से कितना प्यार करते थे। थोड़ी सी चोट क्या लगती थी, दौड़कर हमारे सीने से चिपक जाते थे। आज उसी बेटे के अंग-अंग से, सान पर चढ़े इस्पात के समान, क्रोधाग्नि गिरती रहती है।    

      मैना के हृदय को विदीर्ण कर देने वाली बातों को सुनकर रामदास ने एक लम्बी साँस ली, और फ़रियादी आँखों की तरह देखते हुए सिसक पड़ा था। उसकी रोनी सूरत बता रही थी कि रामदास का पीड़ित हृदय भी एक पक्षी के समान घनी छाया में विश्राम करने तरस रहा था, मगर अपनी मर्दानगी की मर्यादा का उल्लंघन वह कैसे करता, सो आँखों के आँसू, वृक्ष के रस की भाँति गुप्त शक्ति देने हृदय में दबाकर रख दिया था; जिसे देखकर मैना तड़प उठी। वह दोनों हाथ जोड़े रामदास के आगे खड़ी हो गई और बोली---- अतीत के सुनहरे सपने को कब तक आँखों में पालते रहोगे। रामदास! वर्तमान में जीओ और भूल जाओ, हमलोगों का अतीत, वर्तमान से ज्यादा विदारक था।

           मैना जिस त्याग को व्रत बनाकर जी रही थी, वह शैय्या-सेवन के दिनों कुछ नीचे खिसकता हुआ जान पड़ रहा था। जीवन का मूल्य ,त्याग और सेवा में है, जो अब उतना दृढ़ नहीं रह गया था। उसने रामदास से कहा--- जब अपनों से इतना अपमान मिलता है; तो फ़िर हम जिंदा ही क्यों रहें? जब जीवन में कोई सुख नहीं, कोई आशा-अभिलाषा नहीं, तो जीना व्यर्थ है। हमें कुत्ता समझकर कभी रोटी के टुकड़े सामने फ़ेंक देते हैं, कभी वह भी नहीं। 

रामदास ने मैना से कातर होकर कहा--- भिक्षुक को कोई अधिकार नहीं , कि वह दान की वस्तु को ठुकरा दे। इसलिए इसे अपनी दरिद्रता और दुर्भाग्य न समझकर, ईश्वरीय लीला समझ सहती जाओ। अपने त्याग को परिस्थितियों से विद्रोह मत करने दो, कारण वह मेरा बेटा है। घर में भी आग लगा दे, तो भी हमें उसे दुश्मन नहीं मानना चाहिये। हमने उसे पाल-पोस कर बड़ा किया है, उससे दुश्मनी कैसी? ऐसे भी रोना, अपनी हार को स्वीकार करना होगा, जो कम से कम मैं नहीं करूँगा। दुखी होना ईश्वर का अपमान और मानवता को कलंकित करना होगा।

मैना ने रिक्त मन से कहा---- जानती हूँ, तुम्हारी यह विक्षिप्त वेदना सी ललकार मर्मांतक है। चिनगारी के स्पर्श से पैरों में छाले पड़ जाते हैं, लेकिन दहकती हुई आग में पड़ जाय, तो झुलस जाते हैं, पर छाले नहीं पड़ते। तुम्हारी वेदना वही धधकती आग है।

इस तरह दोनों ही अपनी-अपनी अवस्था की भावुकता पर विजय पाने की चेष्टा करते हुए जीने की कोशिश करते रहे, लेकिन मनुष्य सर्वदा प्राणलोक में नहीं रह सकता, सो मरुभूमि के प्यासे पथिक की भाँति सुख के जलस्रोत की खोज में दोनों ही थककर एक दिन सदा के लिए सो गये।

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