शांति
शांति किसे प्यारी नहीं लगती, इसे पाने के लिए लोग अपना जीवन तक न्योछावर कर देते हैं, लेकिन मिलती भाग्य और कठिन परिश्रम वालों को, वह भी संतोष की भार्या के रूप में| कहते हैं, जहाँ संतोष, वहाँ शांति, मगर संतोष किसी तपोवन में नहीं रहता, जो वहाँ जाकर, तपस्या कर उसे पाया जाय| इसलिए अधिकतर लोग शांति से दूर जा रहे हैं, इसका मुख्य कारण चारो तरफ़ फ़ैला बाजारवाद भी है; जो व्यक्ति को और भी दूर कर दे रहा है| इससे केवल इंसान नहीं, बल्कि पृथ्वी, आकाश और सागर सभी अशांत हैं| स्वार्थ मनुष्य को विखंडित कर रहा है; भाषा, संस्कृति, पहनावे अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन मनुष्य जीवन का कल्याण मार्ग शांति, केवल और केवल एक है|
शांति, किसी बाजार में नहीं मिलती, जहाँ से खरीद लिया जाय| यह तो आंतरिक शांति है, जो हमारे हृदय और मन में वास करती है, हमारे शरीर में सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह करती है, जो कि हर व्यक्ति के लिए जरूरी है| शांति को पाने की कोशिश में जो व्यक्ति लगा रहता है, उसकी मदद ईश्वर भी करता है| चूँकि ईश्वर हमारे जीवन का केन्द्र है, इसलिए उसके बगैर शांति की आशा निराधार है| उसने हमारे जीवन की रचना इसलिए की है, ताकि हमें अपने जीवन में उसकी आवश्यकता हो| वह चाहता है कि हम उसे ढ़ूँढ़ें, उसे अपने जीवन में शामिल करें| देखा जाये तो शांति के बिना जीवन का आधार नहीं है|’ शांति के पतन का मुख्य कारण, स्वार्थ, कायरता और अविश्वास तथा भाईचारे का अभाव है| शांति वह अवस्था है, जो चिंतामुक्त हो, व्यक्ति मानसिक और भावनात्मक रूप से शांत हो, जहाँ नकारात्मक विचार, तनाव, और परेशा्नी पैदा करने वाले कारक न हों| केवल सकारात्मक विचार, विश्वास, थोड़े में संतोष, कठिन तथा पीड़ादायक स्थितियों में अपने ऊपर नियंत्रण है| शांति हमें विनम्रता और संतोष का अनुभव कराती है| अत्यधिक महत्वाकांक्षी आदमी शांति को पाने में उसी तरह असफ़ल हो जाता है, जिस प्रकार कोई व्यक्ति तीव्र वेगवान घोड़े पर विना किसी अभ्यास के सवार होने का प्रयास करता है, जो छलांग मारकर संतोष को पारकर, शांतिधारी बनने की कोशिश करता है, ऐसे आदमी से कई काम गलत हो जाते हैं|
संतोष के अभाव में न्याय-अन्याय का विचार हम भूल जाते हैं, विवेक की ओर से आँखें मूँद लेते हैं; परिणाम, शांति तो मिलती नहीं, उल्टा अशांति के दलदल में फ़ंस जाते हैं| याद रहे, स्वार्थी व्यक्ति चाहे कितना भी तप-पूजा कर ले, शांति को नहीं पा सकता| शांति को पाने के लिए, संतोष के साथ-साथ अपने कर्म और व्यवहार में भी ऐसी पवित्रता रहनी चाहिये, जिससे दूसरों का अहित न हो| प्रत्येक व्यक्ति को ध्यान से सुनना, और प्रत्येक व्यवहार का गहरा मनन करके ही कोई उचित कदम उठाना चाहिये|
संतोष क्या है, और शांति का उससे रिश्ता क्या है?
कबीरदास जी कहते हैं…
‘गोधन, गजधन, वारिधन और रतन धन खान
जब आये संतोष धन, सब धन धूरि समान||’
अर्थात संतोष से बड़ा दुनिया में कोई धन नहीं होता है और यह धन जिसके पास है, शांति उसी के पास है| असंतोष से आत्मा में पाप का उदय होता है, हृदय में ईर्ष्या जागती है, मन में अभिमान उठता है, और दूसरों को नीचा दिखाकर स्वयं को श्रेष्ठ बनाने की दुर्भावना उत्पन्न होता है| इसलिए सभी इच्छाओं का केन्द्र मन, जो सभी दृश्य-अदृश्य इन्द्रियों का नियामक है, उस पर नियंत्रण करना जरूरी है, अन्यथा परमात्मा की रचना, आदमी अपूर्ण रह जाती है| जीवन की पूर्णता शराब पीकर, पहाड़ पर बैठकर शांति अर्जित करना नहीं है, वह भी कुछ देर के लिए| नीचे आते ही समस्याएँ फ़िर वहीं आ जाती हैं| समुद्र की सतह पर लहरें भयानक उथल-पुथल और खलबली देखने को मिलती है, लेकिन समुद्र की गहराई में बहुत शांति होती है, इसलिए अस्तित्व का मूल गुण हमेशा शांति होती है|
लोग शांति की तलाश में दुनिया भर के देव मंदिरों के चक्कर लगा आते हैं, बावजूद तीरथ कर-कर अपनी ऊर्जा खत्म कर देते हैं| बावजूद अशांत जीते हैं, कारण खुद के भीतर झाँकना जो भूल जाते हैं| शांति को पाने के लिए, खुद के भीतर की ऊर्जा का रूप बदले बदले बगैर शांति को पाना असंभव है| ऊर्जा को व्यर्थ खर्च होने से रोकने का आसान तरीका है, मंत्रजाप, ऐसा करने से व्यर्थ होती हुई ऊर्जा सार्थक हो जायगी| याद रहे ऊर्जा के रूपांतर में पहली बाधा, बाहर से नहीं, भीतर से आती है| यह कार्य मन करता है, इसलिए मन पर भरोसा नहीं, संदेह रखना चाहिये; कारण जिस मन को हम अपना समझ लेते हैं, दर असल में उसका निर्माण हमारे लिए दूसरों ने किया है| सही-गलत को जब अलग करने की बात आती है, वास्तव में तब मन अशांत और असहज हो जाता है| थोड़े समय के लिए इस असहजता के साथ जीया जा सकता है, लेकिन लम्बे समय तक जीना मुश्किल है| ऐसी अवस्था में मन आंतरिक शांति को खो बैठता है और चिड़चिड़ा हो जाता है, तब वह उन जगहों की तलाश करने लगता है, जहाँ उसकी उलझनें सुलझ जाये| इसके लिए वह देवालय और बाबाओं की शरण में पहुँच जाता है, सोचता है, ‘देवालय की दया और बाबाओं की दुआ से शांति की प्राप्ति होगी, लेकिन ऐसा नहीं होता|’ कबीर ने कहा है…
‘लाख करो तुम पूजा, तीरथ करो हजार
जो मन को न बाँध सके, सब कुछ है बेकार|’
अर्थात पूजा-पाठ, तीरथ,अर्पन-तर्पन, सब बेकार है, जो मन को काबू में न रख पाये|
भगवान बुद्ध कहते हैं , ‘शांति सबसे बड़ा सुख है, और सुख एक प्रकार की मानसिक स्थिति है| इसकी भौतिक सम्पन्नता से कोई लेना-देना नहीं है| सुख तक पहुँचने के लिए मनुष्य को अच्छे रास्ते पर चलना चाहिये, जिस राश्ते न हो छल, न प्रपंच, न ही झूठ हो; तभी सुख की प्राप्ति हो सकती है| महान चिंतक ओशो का कहना है, जहाँ शांति, वहीं सुख है; सुख और शांति एक दूसरे के पूरक हैं, इन्हें अलग नहीं किया जा सकता|’ किसी दार्शनिक ने कहा है, ‘सुख और शांति, दोनों ही एक तितली की भांति हैं, जिसे दौड़कर पकड़ने जाओ, तो दूर भाग जाती है, और चुपचाप एक जगह बैठ जाओ, तब शरीर पर आकर बैठ जाती है| मेरे कहने का मतलब, निष्कपटता ही सुख-शांति और आनंद की सहचरी है|’
शांति मन की वह स्थिति है, जिसमें न दुख होता है न चिंता होती है, मन हर प्रकार से निश्चिंत और स्थिर रहता है, लेकिन मन को बाँधना, हवाई घोड़े के समान होता है, मगर दृढ़ संकल्प और आत्मविश्वास जिसके पास है, उसके लिए बाँधकर रखना असंभव नहीं है| मन पर दृढ़ विश्वास बनाने वाला आदमी ही अंत में इतिहास-पुरुष बनता है, यह एक अटल सत्य है|
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