‘शराफत’ जिंदा है
पौष का महीना था, कडाके की सर्दी थी| मेरे पिताजी, अपने कमरे में बैठकर घर के जमा-खर्च का हिसाब कर रहे थे| तभी किसी ने दरवाजे पर से आवाज लगाई---- मालिक, दरवाजा खोलिये|
पिताजी, आवाज ऊँची कर पूछे---- कौन हो तुम?
उत्तर आया---- मैं आपका बूढा नौकर,पटेश्वरी|
पिताजी, किसी अनहोनी की आशंका लिये, दौड़कर गये, दरवाजा खोले, देखे----
सामने बूढा नौकर पटेश्वरी, एक लाठी का सहारा लिये खड़ा है|
पिताजी, शंकित हो पूछे---- पटेश्वरी, सब ठीक तो है, इतनी रात गए तुम यहाँ, क्या बात है?
पटेश्वरी, इतमीनान से कहा---- मालिक, ‘शराफत’ ज़िंदा है, वो आपसे अभी, इसी बक्त मिलना चाहता है| मैं आपको बुलाने आया हूँ|
पिताजी, नौकर की बात सुनकर चौंक गये, विस्मित होकर पूछे---- ये ‘शराफत’ कौन है, जिसे मैं जानता तक नहीं, और वो मुझसे मिलना चाहता है? अगर, वह ज़िंदा है तो अच्छी बात है, कोई मरे भी क्यों, मेरी मिलकियत पर तो ज़िंदा है नहीं, जो मैं उसके ज़िंदा रहने की खबर से रोऊँ? अफ़सोस करूँ, सोचूँ कि वह अब तक मरा क्यों नहीं? पर यह खबर लेकर तुम, इतनी रात गये, इतनी ठंढ में जहाँ नसों का बह रहा लहू जमकर बर्फ बना जा रहा है, क्यों आये?
फिर फ़िक्र के साथ पूछे---- अच्छा तो तुम ये बताने आये हो कि, कल मटर की फलियाँ इसी ने उखाड़ ले गया?
पिताजी की बात सुनकर, पटेश्वर ने, अफ़सोस के साथ कहा---- नहीं मालिक, वो क्यों कर ले जा सकता है, वह तो एक अस्सी साल का बीमार बूढा आदमी है|
पिताजी, धिक्कार भरी दृष्टि से उसकी तरफ देखकर बोले---- तब उसके सुपुत्र रहे होंगे, बात एक की है| कंगाल तो हर हाल में, मैं ही हुआ न, ये लुटेरे क्या जानें, जिन्हें मुफ्त की रोटी तोड़ने की आदत पड़ जाती है, एक किसान का जीवन-अंश होता है उसका खेत, जिससे उसके परिवार की सारी आशाएँ, इच्छाएँ, मनसूबे, सारे हवाई किले, सब कुछ उसका अपने खेत से जुड़ा रहता है| खेत की एक-एक अंगुल जमीन, उसके रक्त से रंगी रहती है|
पिताजी की बातों को सुनकर एक क्षण के लिये पटेश्वरी सन्नाटे में आ गया, पर दूसरे ही क्षण उसकी चिंता स्वप्न की भाँति टूट गई| पटेश्वरी बूढा होकर भी, वह एक कर्त्तव्यशील उत्साही आदमी था| वह प्रत्येक काम को पूरी जिम्मेदारी से निभाता था| उसने कृतज्ञतापूर्ण भाव से एक बार पिताजी की ओर देखा, फिर विनती के स्वर में कहा---- मालिक, अब चलना चाहिए, वरना देर हो जायगी|
पिताजी बिना रूके उत्तर दिए---- मगर कहाँ?
बूढा नौकर, अपराधी भाव से बोला---- ‘शराफत’ के घर, उससे मिलने|
पिताजी, बूढ़े नौकर की बात सुनकर अभी तक रंज हो रहे थे| मगर अब उन्हें भ्रम होने लगा कि, पटेश्वरी मेरा उपहास कर रहा है! वे झल्लाकर बोले--- पटेश्वरी, जो तुमको कुछ कहना ही नहीं था, तब इतनी रात गए, तुम यहाँ आये क्यों? क्या इस बस्ती में तुम्हें, अपना मन बहलाने के लिए मेरे सिवा, और कोई नहीं मिला, तुम्हारी नजर में मैं ही एक निठल्ला, बचा हुआ था|
पिताजी के प्रश्न का नया स्वरूप देखकर पटेश्वरी डर गया| उसने काँपते स्वर में कहा---- मालिक, आपके स्नेह ने मुझे अब तक ज़िंदा रखा है| अगर आप एक क्षण के लिए भी मुझसे बिमुख हो जायेंगे, तो मेरे लिए आत्मघाती होगा| मैं जानता हूँ, मालिक, आपके ह्रदय के मर्मस्थान ने, मुझे सदा के लिए निर्मल बनाया है| इसलिए आपकी मान-रक्षा मेरा धर्म है, लेकिन मरते हुए आदमी की आज्ञा का पालन करना भी मेरा कर्त्तव्य है| मैं अपनी इच्छा से नहीं, ‘शराफत’ के अनुरोध पर आपको बुलाने आया हूँ| उस मरणासन्न आत्मा की, अगर कोई अभिलाषा है, तो वह है आपसे मिलने की इच्छा| आपसे मिलने के लिये उसने बड़ी लम्बी तपस्या की है| इतने दिनों तक उसकी आकांक्षाएँ उसे केवल और केवल, तड़पाती ही रही हैं, कभी पूरी नहीं हुईं| आपकी उपस्थिति, उसकी सुखद कल्पना को, धरती पर उतारकर पूरा कर देगी|
पिताजी, बूढ़े नौकर पटेश्वरी के मनोभावों को समझते हुए, बोले---- ठीक है, चलो, जहाँ तुम जाना चाहते हो|
पिताजी, पटेश्वरी के पीछे-पीछे घर से चले; थोड़ी दूर चलने के बाद पटेश्वरी एक कच्चे मकान के सामने जाकर रूक गया और पिताजी से कहा---- मालिक, यही है, ‘शराफत’ का घर| आपकी आज्ञा हो तो भीतर आँगन में जाकर आपके आने की खबर पहुँचा दूँ?
पिताजी बोले---ठीक है, पर जल्दी आना|
कुछ क्षण बाद ही पटेश्वरी, एक नौजवान के साथ बाहर निकला ,पिताजी के पास आया; दोनों हाथ जोड़कर नमस्ते किया|
पिताजी पूछे---- आप?
नौजवान मुँह खोलता, उसके पहले पटेश्वरी बोल पड़ा---- ‘शराफत’ का बेटा, शम्भू|
वे दोनों, पिताजी को घर के एक कमरे में ले गये, जहाँ एक कुप्पी जल रहा था| पिताजी कुप्पी की रोशनी में देखे, एक बूढा आदमी, चारपाई पर रजाई ओढ़कर आँखें बंद किये, तेल-मालिश का मजा ले रहा है| यह सब देखकर उन्हें काफी हैरानी हुई, अचंभित हो, पूछे---- शम्भू, ये कौन हैं?
शम्भू, कुपित हो बोला---- मेरे पिता, जो काफी दिनों से बीमार हैं| वे तो कब के चले गए होते मगर एक जिद्द उनको अब तक ज़िंदा रखा है; उनकी जिद्द है, कि एक बार आपसे मिलने की| कहते हैं कि तब, मैं शांति से मर सकूँगा| पिताजी अचंभित हो बोले---- बड़े ही सैद्धांतिक आदमी हैं; सिद्धांत मनुष्य के लिए है, मनुष्य के लिए सिद्धांत नहीं|
पिताजी अफ़सोस व्यक्त करते हुए बोले----- काश! ये आदमी अधिक और देवता कम होते, तो यूँ न ऊपरवाले के हाथों ठुकराए जाते! कितनी तकलीफ में हैं ये, फिर भी अपने सिद्धांत पर अड़े हुए हैं| मगर वह सिद्धांत क्या है, जो इन्हें स्वर्गारोहण की तैयारी की अनुमति नहीं देता?
शम्भू हाथ जोड़ते हुए कहा---- आप इन्हीं से पूछ लीजिये|
पटेश्वरी और शम्भू, दोनों ने बड़ी मुश्किल से, ‘शराफत’ को उठाकर तकिये के सहारे बिठाया, और शम्भू ने अपने पिता से कहा---- पिताजी आँखें खोलिये, देखिये, आपसे मिलने कौन आये हैं?
मेरे पिता को देखते ही ‘शराफत’ की आँखों में एक चमक आ गई, जैसे कोई अलौकिक शक्ति आ गई हो| उसने उन्मत्त की तरह तकिये के नीचे से एक कागज़ निकाला, और काँपते हाथों से पिताजी की ओर बढाते हुए कहा---- इसे पढ़िए| यह आपके खेत की कागजात है, जिसे मेरे पूर्वजों ने, जबरन आपके पूर्वजों से हथिया लिया था| सच मानिए, तब मैं बच्चा था, मगर इतना भी नहीं था, कि न्याय-अन्याय में फर्क न कर सकूँ, पर मजबूर था| अब वे सभी जा चुके हैं, और मैं जाने की तैयारी में आपका इंतजार कर रहा था| आप आ गए, अब मेरे लिए मरना आसान रहेगा; क्योंकि ऋण चुकता किये बिना, दुनिया छोड़कर भागना भी पाप है, और जहाँ मैं पुण्य कमा सकता हूँ, वहाँ पाप क्यों कमाऊँ? इन बातों को कहते, ‘शराफत’ की आँखें मानो ऊँची मीनार पर चढ़ गईं, पर पलक झपकते ही वो आँखें मीनार से उतर गईं| ज्यों गंगा तट पर बैठा-बैठा कोई स्वर्गारोही थककर गंगा में कूद गया हो| यह सब देखकर सबों की आँखें नम हो गईं|
पटेश्वरी, अपनी आँखों के आँसू पोछते हुए बोला---- मालिक, ‘शराफत’ जा चुका है|
पिताजी, सजल नयनों से उस मृत आत्मा को प्रणाम कर बोले---- पटेश्वरी, ‘शराफत’ गया नहीं, आँखों से ओझल हुआ है; आँखें बंद कर देखो, ’शराफत’ यहीं है|
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