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सुगनी का गौना

 

सुगनी का गौना

फ़ुलका गाँव के मृत सिद्देश्वर राय की एक बेटी थी, नाम था, ’सुगनी’। उसकी शादी उन्होंने अपने जीवनकाल में ही, मुरैया गाँव के मुखिया के बेटे के साथ दे दिया था। मगर पाँच साल बीत जाने के बाद भी, सुगनी के ससुराल वाले गौना कराने नहीं आये। दुखी-पड़ेशान सिद्धेश्वर राय ने कई खत, विश्वनाथ ( सगुनी के ससुर ) को लिखते हुए अपनी चिंता व्यक्त कर कहा--- 

समधी जी,

मैं अब पके फ़ल की तरह कुछ दिनों का, दुनिया में मेहमान हूँ। मे्रा स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा, पता नहीं कब गिर जाऊँ; मैं बेटी का पिता होने के नाते, बहुत चिंतित रहा करता हूँ। अब तो इतनी शक्ति भी नहीं बची, कि खुद से जाकर आपसे विनती कर सकूँ; चिंता ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा। मैं टूट चुका हूँ। समधी जी, जीवन–सूत्र, ताँत की बनी कोई डोर नहीं, कि चाहे जितना झटक दो, टूटने का नाम न ले। पक्षी पिंजड़े से निकल भागने तड़फ़ड़ा रहा है। इसके पहले की सुगनी पितृहीन हो जाये, आप अपने घर की लक्ष्मी को गौना कराकर ले जाने की मुझ पर दया करें।

      आपका अभागा------ सिद्धेश्वर 

         बचपन से ही सिद्धेश्वर राय, धार्मिक प्रवृति के होने के कारण, नींद खुलते ही ईश्वर उपासना में लग जाते थे। आध घंटे तक चंदन रगड़ते, फ़िर आईने के सामने जाकर एक तिनके से माथे पर तिलक लगाते। ललाट पर चंदन की दो रेखाओं के बीच लाल रोड़ी की बिंदी लगाकर, कृष्ण की मूर्ति को निकालकर नहलाते थे, फ़िर फ़ूल-चंदन अर्पण करते थे। एक दिन वे पूजन-गृह से बाहर निकले तो उनकी नजर पहाड़ी-आकाश पर पड़ी; देखा---- संध्या के फ़ैले रंगीले पट पर विहंग, पंक्ति बाँधकर कलरव करते अपने घर को लौट रहे हैं। लेकिन हवा, जंगल-झाड़ियों से अंधकार को खींचकर उनकी राहों में अंधेरा फ़ैलाने की कोशिश कर रही है। यह सब देखकर सिद्धेश्वर का हृदय काँप गया। उनकी नजरों के आगे सुगनी का मासूम चेहरा नाचने लगा। वह सोचने लगा--- सुगनी के भी घर लौटने की राह में अंधेरा फ़ैलता जा रहा है। क्या एक दिन, वह इसी निविड़ अंधकार में खो जायगी? सिद्धेश्वर कुछ देर मौन-शांत सोचते रहे, कि अचानक चिल्ला पड़े---- अन्यायी समीर! कान धरकर मेरी बात सुनो। देखो---- तुम्हारी क्रूरता पर बुलबुल किस तरह क्रन्दन कर रही है; उसकी आह तुझे कहीं का नहीं छोड़ेगी। सिद्धेश्वर के चिल्लाने की आवाज सुनकर, उनकी पत्नी जानकी दरवाजे पर दौड़ती हुई आई और पति को अपनी आँख के आँसू अँगोछे से पोछ रहे, देखकर घबड़ा गई; उसने पूछा---- क्या हुआ, आपकी आँखों में आँसू!

सिद्धेश्वर, तीक्ष्ण स्वर में बोला---- कुछ नहीं। 

जानकी को अपने शेर पति की बातों पर आज पहली बार यकीन नहीं हो रहा था। उसने एक अपराधी की तरह, फ़िर पूछा--- बात तो कुछ है, आप मुझे बताइये। हो सकता है, मैं आपकी कुछ सहायता कर सकूँ।

सिद्धेश्वर, थोड़ी देर तक मुक्त आकाश में बादलों को उड़ते हुए देखते रहे, और फ़िर पत्नी जानकी से बोले--- देखो, इन बादलों को; कैसे हवा इसके संग क्रीड़ा कर रही है?

जानकी आकाश की ओर नजर उठाकर देखी और बोली----- अद्भुत , सुंदर ही नहीं आकर्षक भी है।

सिद्धेश्वर आर्द्र स्वर में बोले---- बस इतना ही, और कुछ नही? 

जानकी, पति की बाँह पकड़कर बोली----- आप चिंतित, परेशान दीख रहे हैं। लगता है आप थक चुके हैं, आपको आराम की जरूरत है। आप बिस्तर पर जाकर आराम कीजिये।

पत्नी की बात मानकर वे बिस्तर पर लेट गये और लेटे-लेटे सोचने लगे---- गलती विश्वनाथ की नहीं, मेरी है, जो मैंने एक दरिद्र बाप की बेटी को मुखिया के घर शादी देकर सिंघासन पर बैठाने के सपने को जीवन-आधार मानकर सोता रहा, और आत्मोन्नति के झूठे प्रयास में सुगनी के जीवन को शुष्क और निरीह कर दिया। 

          सिद्धेश्वर की आत्मा, लज्जा, ग्लानि की मानसिक पीड़ा में तड़पने लगी और उन्होंने तय कर लिया--- घर में चार आदमी हैं, सबों के लिए रोटी की व्यवस्था मैं कर सकता हूँ, तो क्या एक सुगनी की नहीं कर सकता, जो मैं किसी भिखारी की भाँति नित विश्वनाथ के आगे गिरगिराता हूँ। इस न्याय-विहीन संसार में यदि चोरी, हत्या अधर्म है, तो क्या एक जवान लड़की की जिंदगी से इस प्रकार खेलना पाप नहीं है। यद्यपि सिद्धेश्वर न्याय के रास्ते थे और विश्वनाथ मुलजिम; लेकिन यथार्थ में दशा इसके प्रतिकूल थी। सिद्धेश्वर मानसिक पीड़ा से ऊबकर आत्महत्या के लिए खुद को तैयार कर रहे थे और विश्वनाथ का मुख, यह सब जानकर निर्दोषिता के प्रकाश से चमकता रहा था।

          सिद्धेश्वर जब भी सुगनी की ओर देखते थे, उसे अपनी दरिद्रता पर दुख नहीं, लज्जा आने लगती थी। उन्होंने बेटी के भविष्य की चिंता कर अपने शरीर को घुला डाला और एक दिन दुनिया को ही अलविदा कह दिया। सिद्धेश्वर के अकस्मात चल बसने की खबर सुगनी के ससुराल वालों को भेजा गया, लेकिन वहाँ से कोई, शोक संतप्त परिवार से मिलने तक नहीं आया। इतना सब घटित होने के बाद भी सुगनी का,जो पहली बार पति से आत्मिक सामंजस्य हुआ था, उसे भूलने के लिए तैयार नहीं थी। उसका मानना था, कपड़े ज्यों जिस्म की हिफ़ाजत करते हैं, त्यों प्यार हृदय की हिफ़ाजत करता है। मुझे ऐसे प्यार पर गर्व होता है, वेदना नहीं, लेकिन पिता की मृत्यु ने उसे झकझोर कर रख दिया। जिस मुख पर आत्म-गौरव रहा करता था, अब वहाँ वेदना छाई रहने लगी। उसके लिये अपमान–अनादर, अधिक हृदय-विदारक हो गया था। वह खुद को अपने हृदय-वेदना की दहकती आग में झुलसने से बचाने के लिए गाँव के बाहर पोखरे में जाकर कूद गई। यह खबर, सुगनी के पति रसिकलाल को जब मिला; वह रोता-बिलखता ससुराल आया। सुगनी को चिता पर लेटा देख वह बिफ़र उठा, और अपनी छाती को जोर-जोर से पीटने लगा। जिसे देखकर, मानवता का विद्रोही (विश्वनाथ) की आत्मा एक बार आन्दोलित हो उठी, मगर दूसरे ही क्षण उसके मुख पर वही कठोर मुस्कान चमक उठी। पिता की विद्रोह भरी ललकार, रसिकलाल को स्तम्भित कर दिया, लेकिन वह डरा नहीं। उसने अपनी उँगली पर दाँत गड़ाकर लहू की कुछ बूँदें निकाली, और सुगनी की माँग में भर दी और कहा---- प्रिये! गौना कराकर तुमको अपने घर तो नहीं ले जा सका, लेकिन तुम जहाँ जा रही हो, मैं तो वहाँ आ सकता हूँ, मेरे आने का इंतजार करना।

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