Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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सुरभि रहित खिलते अब फ़ूल यहाँ

 

सुरभि रहित खिलते अब फ़ूल यहाँ

मेरे रसमाते जीवन घट में
मेरी चिति का स्वरूप बनकर
जितने भी आकांक्षाओं के फ़ूल
ज्योतिरिंगों से तैर रहे थे
सब के सब रक्त, मांसमय
सभी मेरे ही प्राणों के साये थे
जो बदल – बदलकर रूप अपना
अविरल हमसे कह रहे थे

दिवस ढल आया, शाम है होनेवाली
डूबने जा रही मखमली.कलुष पंक में
धरा पर घनघोर अँधेरी है छानेवाली
ऐसे में,तुम मधुलोभ में वन-वन क्यों
भटक रहे,क्या तुमको नहीं मालूम
सुरभि रहित खिलते हैं फ़ूल यहाँ
होती उसमें अब कांति, पराग नहीं

इसलिए मृत्तिपुत्र, उपजाओ मत अपने
हृदय में आग, प्राणों में शीतलता छाने दो
उड़ रहे जो प्राणहंस अम्बर में तुम्हारे
उसे धरा पर उतर आने को कहो
याद रहे, तुम मर्तलोक के वासी हो
फ़िर क्यों सैकत के नीचे दबी सरिता को
चूमने , बार - बार ललकते हो



देखना किसी रोज अचानक उड़ जायेगी
जब मादकता तुम्हारे निज मधुवन की
तब व्योम कुंज की , परी कल्पने
जिसे पाने तुम ललच रहे इतने
लगेगी सब मलिन आस थी सपने की

इसलिए किरणों को पकड़- पकड़कर
मुक्त गगन में चढ़ना छोड़ो
युगों- युगों तक तुम्हारे दीप्ति का राग
भुवन में बजता रहे कुछ ऐसा करो
पथ दुर्गम है, दूर देश जाना है
तुम राही , दूर देश के मुसाफ़िर हो
छोड़ो मणि मुद्रित दीपक के लौ की आस
आ रहा है छिटक-छिटककर बदली से
जो प्रकाश , उसकी रोशनी में बैठ
अंतिम सफ़र पर जाने की तैयारी करो



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