तू आज छोड़ चला कुसुमों की छाया
परदेशी, इस वन में कब तू आया
जो संचित कर, पत्रों के अस्फ़ुट अधरों में
अपना दिवस आलाप, नभ भू में भरकर
प्रण्य का नाद,नील मुक्ति में समाधिस्थ होने
तू आज छोड़ चला कुसुमों की छाया
संध्या या नील सरोरुह, जो पराग बन
तेरे जीवन पथ में रहता था, बिखरा
तृण तरुएं, जिन्हें सुनाया करता था तू
अपने विदीर्ण हृदय की दुखभरी कथा
सभी पूछ रहे तुझसे, सरिता के चिकने
उपलों – सी रंगीन, मनोहारी इच्छाओं से
कब तेरे मन हृदय का कोमल रिश्ता टूटा
किसने किया तेरे हृदय मुकुल की स्पष्ट उपेक्षा
जो तू आज छोड़ चला कुसुमों की छाया
ढूँढती है तुझको श्रद्धा सूनी, जिसकी साँस से
मिलाया करता था, तू अपना स्वर कर दूना
कहता था क्यों नहीं मनुज जीवन के सूखे तरु पर
भी आकाश बेलि की तरह, मनोवृतियाँ सभी
प्रणय रुधिर से रण्जित होकर रहतीं, हरी-भरी
क्यों यह प्राण दीपक,जीवन समाधि के खंडहर पर
अशांत जलता,अब बुझा,तब बुझा दीखता घड़ी-घड़ी
परदेशी, सच- सच बता, कौन है वहाँ तेरा
किसे तू छोड़ आया है, उस महाशून्य के
अंतर्गृह के अद्वैत भवन में अकेला
जिसके लिए यह श्याम कर्म लोक तेरी
आँखों को जीवन पर्यंत दीखता रहा धुँधला
जिसके लिए तू ठुकरा कर जा रहा,भुवन में
खिले शत – पत्र कमल की शीतलता
तू नहीं जानता, तुझे नहीं पता, अखिल विश्व के
कोलाहल से दूर, सुदूर निभृत निर्जन में
रूप, रंग, गंध से भरा दीख रहा, कोकनाद
वहाँ केवल शून्य का उत्स है, नील सिंधु का
गर्जन है और है महाकाल के साँस की निस्सीमता
जो खोल कोमल कलियों का अस्फ़ुट उर द्वार
अपने हृदय के वाड़व ज्वलन को भरता
सृष्टि भयमय मौन चुपचाप खड़ी देखती रहती
वहाँ प्रकृति और पुतलों में कोई अंतर नहीं रहता
इसलिए छोड़ सोचना, मही और नभ दोनों
अलग - अलग हैं, तू जिसे सोच रहा अम्बर
वह मही की परिछाहीं है, दोनो में कोई भेद नहीं है
वहाँ कोई कंचन सरोवर नहीं है,जिसकी धूमैली गंध
हवा संग उठकर बादलों में ताजगी भरती
देवदारु के प्रलंब भुज से मदहोश होकर उलझी बहती
इसलिए उस तम घन में लौटकर अब तू मत जा
यहीं है नाग केसरों की क्यारी,यहीं रहती शांति प्यारी
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