तकल्लुफ़ शराफ़त का निशां है
सोचकर तू क्यों इतना परेशां है
तेरा तर्के-बयां कहता, तू रंजित है, वरना
दहन में होती नहीं ऐसी जबां है
जहाँ में न तेरा अपना कोई, न तू
किसी का, तू रहता कहाँ है
शाम आती, सुबह कूचकर जाती
जिंदगी, कफ़न पहने तक की मेहमां है
तू जो पहले था, अब नहीं है क्यों
दुनिया इसी बात को सोचकर हैरां है
तू कहता रस्मे –मुहब्बत उठ चुकी
मैं कहती हूँ, मेरा अपना सारा जहाँ है
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