Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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तीनों काल मुझमें है निहित

 

तीनों काल मुझमें है निहित


प्रभु! मैं तो जानता, यह रूप जगत, तुम्हारी

ही छाया है, तुम ही हो, इस जगत के पिता

तुमने ही इस लोक को बनाया, सजाया

नित्य विलासी, सुरभित रहे दिगंत

तुमने ही मधु से पूर्ण बनाया वसंत


धरती के रोम-रोम में सुंदरता भरी रहे

तुमने ही, कोकिला की कूक, मृग गुंजार

सुमनों में सुहास, जल में लहरों को भरा

जगती के सरस, साकार रूप चिंतन में

मनुज के अंतर को, नीरवता स्वरूप प्रकाश

मिलता रहे, तुमने ही रत्नों से विभूषित नभ  को

स्वर्ण किरणों की झालड़ से बुना


बुद्धि, मनीषा, मति, आशा, चिंता, सब तुम्हारा ही प्रतिरूप है

यह लोक सुखी रहे, ले आश्रय मनुज की छाया में

तुमने ही सभी जीवों में श्रेष्ठ बुद्धिमान मनुज को बनाया

विडंबना है कि आज एक वर्ग स्वयं को मनुज विप्र बताकर

कहता, इस लोक जीवन का प्रतिनिधि मैं हूँ, स्थूल जगत के

मूर्त और सूक्ष्म प्रकाश की सप्तरंग छाया से मैं बना हूँ

मैं मर्त्य अमर हूँ, मुझमें ही शत स्वर्ण युग हैं समाहित

भूत, वर्तमान, भविष्य तीनों काल मुझमें हैं निहित

मैंने ही पत्रों के मर्मर में, देवताओं की वीणा के

मधुर स्वर को भरा है, मुझसे ही शिलाए हैं पल्‍लवित


यह सूरज जो नित, धरा के गर्भ गुह्य  से निकलता

जानते हो, यह स्वर्ण महल को छोड़कर क्यों यहाँ आता

यह लोक विधायक नहीं, लोक विघातक है

यह नित रजनी को अपनी प्रीति स्रावित बाँहों में भरकर

कितने ही अग्नि बीज को, धरा पर बिखराता

जिससे तप, दग्ध रहती धरा, पंक जीवन का

कोई भी हिस्सा, हरा-भरा नहीं हो पाता


आलोकित करना चाहते हो अगर

अपने घोर नैराश्य तिमिर को

पहले मनुज सत्य की अमर मूर्ति

युग विप्र, भविष्य द्रष्टा का कहा मानो

जो देख रहा है कैसे मूक धरा के

अतल गर्भ से, एक-एक कर

शैल-सा अग्नि-स्तंभ निकल रहा

कैसे बारी-बारी से जन जीवन को


उस अग्नि स्तंभ पर चढ़ाकर बाहर फेंक रहा

मैं ही नहीं, विश्व देख रहा, महाशून्य की नीरवता में

नित नव-नव ग्रह, कैसे एक-एक कर जनम ले रहा

क्या यह सब मरु की काँपती निर्जलता में

प्राणों के मर्मर, हरियाली को भरने उठ रहा

नहीं यह सभी महाशून्य के वृहद पंख-सा

रिक्त अग्नि-पिंड है, जो अपने उभरे मोटे होठों

में लालसा को दबाये, धरा को ग्रसित करने आ रहा


यह जो प्रकृति है, नित आंदोलन संग्राम, धरा पर छेड़ती है

कभी वारि को वाष्प, कभी वाष्प को वारि बनाती है

जल-थल, नभचर के विकास क्रम को, जब यह सुलझा न सकी

तब इस जग का भार, चिर स्वतंत्र महामृत्यु को सौंप दी

और कही, मृत्यु, प्राणी जीवन का भष्म शेष नहीं है

बल्कि यह नव जीवन की शुरुआत है, यह तो

निशा मुख की मनोहर सुधामय मुस्कान है

यहीं से जीवन शुरू होता, जीवन का यही तो आख्यान है


जब कि हाड़-रक्‍त-मांस से बना यह मनुज विप्र

विविध दुर्बलताओं से स्वयं ही रहता पीड़ित

कभी रोग नोचता श्वांग बनकर, कभी भयभीत

कर रखता तिमिर, तब ईश्वर का करता आह्वान

आत्मा गोपन होकर करती चिंतन, कहती

सूख गए सर, सरित-क्षार निस्सीम है जलधि जल

इस पावक को शमित करो प्रभु हृदय लपट को बुझाओ

तुम हो परे, तुम क्षणभंगुर में भी नित्य अमर


तुम परित्यक्तों के जीवन सहचर

तुम्हारे आगे, ब्राहमण, योगी, भोगी, राजा

रंक, फकीर सभी दीन, सभी दुर्बल

तुम भटके को दिखाते पथ

तुम बाधा विध्नों में हो बल

तुम प्राण रूप में हो सत्य

तुम कुत्सित रूप में भी लगते सुंदर

तुम पंकिल जीवन का पंकज

शेष शून्य जग का आडम्बर

 


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