उधार का दूध
गंगाराम, एक तपस्वी की भाँति, एक पेड़ के नीचे थका, शांत, परेशान बैठा हुआ था, पर उसकी शांति में नैराश्य की वेदना भरी हुई थी|सागर के हिचकोले थे, आँखों में उमंगों और आशाओं का भष्म था| वह सोच रहा था, ‘‘भूखे रहने के दिन भी मेरे तेवर कम नहीं हुए, शायद कोई अज्ञात ताकत, प्रेरक बनकर, मेरे साथ रहता था| मेरी गरीबी में बुद्धि-शक्ति सदा ही अपनी ओर मुझे झुकाये रखती थी| उसी के आश्रय में मेरा आत्म-विश्वास जगा, जो मैं अपनी दरिद्रता से लड़ सका| अपनी अभावता को कभी भी, अपने प्रेम और समर्पण के स्थान से गिरने नहीं दिया| यह सोचकर कि, निर्धन जीवन के सामने विलासी जीवन तुच्छ है, त्याग और श्रद्धा के सामने, उसकी कोई औकात नहीं है| मानव का जीवन ध्येय केवल और केवल सुख भोग व धन अर्जन का नहीं होना चाहिए| अगर हमारे महापुरुष अपना जीवन, मन प्रतिष्ठा और कृति में बिताये होते, तो आज उन्हें कोई नहीं जानता| उनके आत्म-बलिदान ने ही उन्हें अमर बनाया| प्रतिष्ठा कभी भी धन और विलास पर अवलंबित नहीं रहती; गंगाराम की चिंताओं की तरह गाँव की छोड़ पर अपार-भयंकर गोमती की लहरें, व्याकुल, परेशान बह रही थीं| वह अचानक उठा, और गोमती तट पर जा बैठा| आकुल ह्रदय का जल-तरंगों से, बैठते ही प्रेम हो गया|
तभी पीछे से, बेचैन कर देने वाली उसे एक आवाज सुनाई पड़ी, उसने मुड़कर देखा, तो उसे लगा कि कोई आकृति दरिद्र दृष्टि से उसकी तरफ देखकर, उससे पूछ रही है, ‘बेटा! तुम यहाँ, इस निर्जनता में बैठकर क्या सोच रहे हो?
एक क्षण के लिए उसके शरीर का रक्त-प्रवाह रुक गया, वह भयभीत हो काँपने लगा, मगर दूसरे ही पल उसे लगा कि यह आकृति कोई और नहीं, उसकी माँ है|
गंगाराम, दोनों हाथों से पाँव छूने की असफल चेष्टा करते हुए बोला, ‘माँ, मैं सोच रहा हूँ, रामदेव के दूध का बकाया पैसे चुका दूँ|
माँ, गंभीर भाव से बोली, ‘तो चुका दो न, रोका किसने है?
गंगाराम रुआंसा हो बोला, ‘मेरी दीनता ने|
माँ ने गर्दन हिलाकर कहा, ‘हाँ, वो तो है बेटा, पर चुकाना तो होगा ही| तुम एक काम करो, रामदेव से महीने, दो महीने का समय मांग लो और हर रोज कुछ-कुछ जोड़कर पैसे चुकता कर दो|
गंगाराम, दिन भाव से कहा, ‘माँ, उसने कई बार मुझे समय दिया है, अब नहीं देगा, अब तो दुतकार कर भगा देगा|
माँ प्रचंड होकर बोली, ‘जो भी, पर वह मानवता की ह्त्या तो नहीं कर सकता न| एक बार कोशिश कर देखो, मैं अभी के लिए जाती हूँ, फिर मिलूँगी और आकृति विलीन हो गई|
गंगाराम, माँ की बात मानकर, सोचा–कोशिश में हर्ज क्या है, हो सकता है वह मान जाय| गंगाराम, रामदेव के घर की तरफ जा ही रहा था कि देखा, ‘रामदेव, झटकता हुआ उसी की तरफ बढ़ता आ रहा है|
गंगाराम दौड़ता हुआ उसके पास गया और बोला, ‘रामदेव, साँझ हो आई है, सर्दी बढ़ रही है, ऐसे में तुम कहाँ जा रहे हो?
रामदेव, क्रोधित हो बोला, ‘तुम्हारी आज्ञा जहाँ-जहाँ जाने की होगी, मुझे वहाँ-वहाँ जाना ही पड़ेगा| सुना था, इंसान पाक मोहव्वत के लम्हे पर, उम्र भर के लिए मतवाला हो जाता है, मैं पागल भी न होऊँ, तो कैसी दोस्ती?
गंगाराम रुंधे कंठ से, आत्मीयता के साथ बोला--रामदेव, बस आखरी बार एक मौक़ा दे दो, ज्यादा नहीं एक महीने का| दोस्ती की कसम, इस बार सूद समेत चुकता कर दूँगा|
रामदेव, गंगाराम की बात पर बुरी तरह बौखला उठा और धरती पर थूकते हुए कहा, ‘ये रहा तुम्हारे एक झूठ का पुरस्कार और लात पटकते हुए बोला, ‘ये दिया एक महीने का समय!
गंगाराम कृतज्ञता भाव से कहा, ‘तुम्हारी बहुत बड़ी कृपा है|
रामदेव, उपेक्षा भाव से कहा, ‘रहने भी दो, यह सब बातुनी बातें हैं| अभी के लिए मैं जाता हूँ, पर एक महीने बाद फिर मिलूँगा|
रामदेव के जाने के बाद, गंगाराम चिंतित, उदास रसोई घर में जाकर बैठ गया और एक-एक कर थाली, हाड़ी, ग्लास सब निकालकर उँगलियों पर उनके दाम जोड़ने लगा| पैसे के पूरे न होते देख, उसने तय किया कि घर बेच दूँगा, क्योंकि इस एक महीने में अपनी मेहनत और किफायत से भी पैसे पूरे होना नामुमकिन है| तभी उस अंधेरेपन में उसे दीपक के समान कोई आकृति रोशनी प्रदान करती हुई पूछी, ‘बेटा गंगाराम! आखिर तुमने, रामदेव से उधार किसलिए लिये थे, यह तो बताया ही नहीं?
गंगाराम भर्राई आवाज में कहा, ‘माँ, कुछ दिन पहले मैं काफी जोरों से बीमार पड़ा था| कमजोरी इतनी थी कि लाठी पकड़कर चलने लगा था| तभी बगल वाले, डॉ. भैयाजी ने मुझे अपने पास बुलाया, कुछ दवाईयाँ दी, और कहा, ‘गंगाराम, तुम कुछ दूध लिया करो, बहुत कमजोर हो| लेकिन माँ मेरे पास पैसे तो थे नहीं, मैं क्या करता? यह जानकर, कि अपने गाँव के रामदेव के पास दो भैंसें हैं, अच्छा-खासा दूध वह बाजार भेजता है| मैं उसके घर गया, उससे विनती की, कहा, ‘रामदेव, मुझे कुछ दिनों के लिए आधा सेर दूध देने की अगर महरबानी करो, तो मैं बच जाऊँगा, अन्यथा मेरा मरना तय है| रामदेव, मेरी तरफ देखा, उसे दया आ गई, और इसी शर्त्त पर दूध देने के लिए तैयार हुआ कि मैं समय पर दूध का दाम चुकता कर दूँगा, पर मैं ऐसा नहीं कर पाया| उसके रोज का तगादा मुझे आत्महत्या करने के लिए मजबूर कर रहा है| इसके सिवा मेरे लिए कोई दूसरा रास्ता भी तो नहीं बचा है|
बेटे की बेबशी जानकर माँ ने कहा, ‘बेटा! मानव जीवन इतिहास का यह प्रत्यक्ष सबूत है कि यहाँ पैसे वाले राजा हैं, और गरीब, नौकर| यहाँ गरीब कितनी बार अपनी आत्महत्या करते हैं, वे खुद भी गिन नहीं पाते| बाबजूद मैं कहूँगी, ‘इंसान को अपना वसूल किसी भी हालत में त्यागना नहीं चाहिए बेटा| बकाया रखकर इस दुनिया से भागना भी एक पाप है| पूर्व जनम में न जाने मैं क्या पाप की थी, जिसका प्रायश्चित तुम आज मेरा बेटा बनकर गरीबी का बोझ उठाये घूम रहे हो|
माँ की काली परछाहीं को धीरे-धीरे जाती देख, सहसा उसका मन उड़कर माँ के चरणों में जा गिरा और व्यथा में डूबे स्वर में बोला, ‘माँ मुझे बचा लो| पर थोड़ी दूर जाने के बाद ही परछाहीं लुप्त हो गई| वह विवश लाचार हो, एक वियोगी पक्षी की तरह अपने छोटे से घोंसले में लौट आया और रोते-रोते माँ को वचन दिया, ‘जब तक दूध का दाम चुकता नहीं कर देता, मैं चैन से नहीं बैठूँगा’|
मन पर जितना बड़ा आघात होता है, मन की प्रतिक्रया भी उतनी ही बड़ी होती है| दूध का बकाया पैसा, गंगाराम के अंत: स्थल को मथकर रख दिया था| चिंता और बीमारी, गंगाराम को दिन-ब-दिन चिता की ओर लिये जा रहा था| उसमें अब इतनी भी कूबत नहीं बची थी कि कहीं मजदूरी कर सके| उसकी स्थिति एक पंखहीन पक्षी की तरह हो गई थी| गंगाराम ठंढ से बचने के लिए जो अलाव जला रखा था, उससे एक चिनगारी उछली और गंगाराम की धोती को पकड़ ली| उसे लगा, कर्ज रूपी कोई नाग उसे डसने के लिए उसकी तरफ बढ़ता चला आ रहा है, और वह भागना चाहकर भी भाग नहीं पा रहा है| उसका हाथ-पाँव काँप रहा है, शरीर के सारे अंग शिथिल पड़ गए हैं, वह भागने की कोशिश में वहीँ कच्ची मिट्टी के घड़े की तरह जमीं पर मुँह-भार लुढ़क गया| वह बचने के लिए आवाज लगाया, लेकिन कमजोर कंठ से आवाज बाहर नहीं निकली| जब आग की लपटें ऊपर खपरैल पर लहराने लगीं, तब आस-परोस के लोग दौड़कर उसके पास आये, मगर तब तक देर हो चुकी थी| गंगाराम कर्ज की नुकीली पंजों से, घायल होकर इस दुनिया से जा चुका है| उसकी हड्डियों से चटक-चटककर निकल रही चिनगारियाँ ऊपर उछल-उछलकर कह रही हैं, ‘‘कौन कहता है, इस दुनिया का मालिक एक है|’
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY