वर्षा ऋतु
धूलि धूसरित धरा मलिना के
ग्रीष्म तपित , मन ताप को
सुख शीतल कर, रूप रस
गंध का झंकृत भूषण पहनाने
झूम- झूम, गरज-गरज घनघोर
देखो,बरस रहा बादल चहु ओर
कली - कुसुम भूतल को रंगने
शोभना के हित लगी सजने,नृत्य
तरंगित होने लगा सरिता का स्रोत
भष्मावृत धरा का फ़िर से
नव जनम हो रहा , तभी धरा-
सरोवर सुंदर दीखती बेजोड़
अमुआ की डाली पर सटके बैठे
कोयल बोल-बोलकर मचा रही शोर
हरित कुंज में होकर ओझल
हंस पाती से चलने लगे पवन दल
नभ में उड़ने लगे, काले घने मेघ
स्वप्न सेज पर बैठी प्रिया अधीर
प्रति श्वास प्रिय की ओर बढ़ने लगी
दादुर टर्र -टर्र , झिल्ली झन -झन
म्याऊँ- म्याऊँ कर नाचने लगे मोर
हर तरफ़ हरिताभ हर्ष से भरी धरा पर
सौरभ मकरंद तनवाली दूब के पाँवड़ बिछने लगे
तलहटियाँ रंग – बिरंगे फ़ूलों से गईं भर
नव पल्लव के अंचल में लिपटी वनश्री
स्वर्ग सुंदरी उर्वशी सी दीखने लगी
जलनिधि के तलवासी जलचर
आकर्षण में खींचे निकल आये बाहर
एक दूजे से कह रहे , सृष्टि और
प्रकृति बीच , देखो लगी है कैसी होड़
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