Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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वक्त किसी का अपना नहीं होता

 

वक्त किसी का अपना नहीं होता


   किशोर इंजीनियरिंग की पढ़ाई पास कर, अमेरिका से जब अपने गाँव जहाँगीरपुर पहुँचा, भादो का महीना था| मूसलाधार बारिश हो रही थी, बिजली छिटक रही थी, मेघ गरज रहा था| मानो आज आकाश जमीन पर आ गिरेगा| सभी अपने-अपने घरों में दुबके पड़े थे|

        मगर बाहर गंगा, बाढ़ के पानी के साथ मिलकर, अपनी होश गंवा बैठी थी| वह लोगों के घरों में घुसने के लिए आतुर थी| किशोर किसी तरह अपने दरवाजे पर पहुँचा, और दहलेज के किवाड़ की दराज से भीतर झाँका, देखा---- दीवट पर तेल की कुप्पी जल रही है, और उसके मद्धिम प्रकाश में, माँ (दीपा) घुटने पर सर रखे, दरवाजे की ओर मुँह किये, किसी के आने की राह देख रही है| किशोर ने कातर स्वर में आवाज देकर कहा---- माँ! दरवाजा खोलो| मैं किशोर, अमेरिका से आ गया हूँ| कहते ही किशोर का मन उड़कर माँ के चरणों में जा पहुँचा| आवाज पहचानते ही दीपा, पागलों की भाँति दौड़ती हुई, दहलेज का किवाड़ खोलकर किशोर को गले लगा ली और विस्मित हो बोली---- बेटा! तुम्हारे कपड़े से तो पानी चू रहा है, तुम कब से बाहर खड़ा था? चल जल्दी से कपडे बदल लो, वरना सर्दी लग जायेगी| ऐसे भी आज तीन दिन से मौसम, पगला गया है| लोग बेहाल हैं, और इन बादलों को देखो, एक बार जो बरसना शुरू किया, बरसते ही जा रहा है| 

दीपा एक बार उदासीन भाव से बेटे की ओर देखी, और बोली---- बेटा! तबियत तो तुम्हारी ठीक है न?

किशोर भींगे कंठ से कहा---- अभी तो ठीक हूँ माँ, पर दश दिन पहले मैं बीमार था, तभी तो वहाँ नौकरी न खोजकर हिन्दुस्तान, अपना देश लौट आया| यहाँ तुम हो, बाबू हैं; अब साथ रहेंगे, तब सब ठीक हो जाएगा| मगर माँ, पिताजी कहाँ हैं, कहीं नजर नहीं आ रहे हैं?

दीपा उदास होकर बोली---- बेटा! तुम्हारे पिता, प्रतिष्ठा खरीदने गए हैं|

किशोर आपत्ति भाव से बोल पड़ा---- माँ! यह क्या बोल रही हो, प्रतिष्ठा भी खरीदने की वस्तु है? अरि माँ! इसे लोग स्वत: प्रदान करते हैं| उसे पैसे देकर खरीदा नहीं जा सकता|

दीपा व्यंग्य भाव से बोल पड़ी---- स्वत: अगर नहीं मिले, तब लोग क्या करे; खरीदना तो पडेगा ही न?

किशोर अचंभित हो पूछा---- वो कैसे माँ? 

दीपा गंभीर हो बोली----- धन प्राप्ति कर, मेरे कहने का मतलब ,आज के युग में, जिसके पास जितना धन, वह उतना ही बड़ा प्रतिष्ठित आदमी कहलाता है| तुम्हारे पिता भी आजकल इसी उद्योग में लगे हुए हैं|

किशोर---- वो कैसे माँ? 

दीपा, अपने बुद्धिबल से दूसरों के धन को अपने नाम कर| बेटा! मैं यह बात उनको समझाते अब थक चुकी हूँ, कि धन का महत्त्व जिंदगी जीने के लिए जीवन में उतना नहीं है, जितना आप समझ रहे हैं| जीवन को सुखी, दूसरों को सुख देकर भी किया जा सकता है| क्योंकि पीड़क होने से पीड़ित होना कहीं अच्छा है, और आप तो एक प्रतिष्ठित आदमी हैं| आपका काम समाज से छीनना नहीं, समाज को देना, होना चाहिये| लोग आपको अपने मन-मन्दिर के सिंघासन पर भगवान तुल्य बिठाकर रखे हैं| उनके विश्वास का सम्मान करना आपका धर्म बनता है| अगर आप ऐसा नहीं करते हैं, तो ये भी याद रखिये; मानवता हमेशा कुचली नहीं जा सकती | समता और न्याय , ये दोनों ही जीवन के तत्व हैं| यही एक दशा है, जो जीवन को स्थिर रख सकता है| विडम्बना ही कहो बेटा, कि ऊँगलियों पर गिने-चुने जानेवाले कुछ धनी लोग, ईश्वर प्रदत्त प्रकाश और वायु का अपहरण कर रखे हैं| बाकी के पास रोषमय रोदन के सिवा कुछ बचता नहीं है| 

किशोर, चाय का खाली कप, एक तरफ रखते हुए कहा---- माँ! आज मैं पिताजी को समझाऊँगा, कहूँगा कि पिताजी, आपके पास बहुत धन है| अब आराम से घर में रहिये; क्या जरूरत है ‘नौ का नब्बे करने की‘| ऐसे भी अब ज़माना बदल गया है, गरीब, बहुत दिनों तक गरीब नहीं रहेंगे| वह दिन दूर नहीं, जब गरीबों के हाथ में शक्ति होगी| इसलिए विप्लव के जन्तु को छेड़-छेड़कर जगाना ठीक नहीं, अन्यथा उसे जितना परेशान करेंगे, वह उतना झल्लायेगा | उठकर जम्हाई लेगा, और जोर से दहाड़ेगा| तब आप जैसों को भागने तक की राह नहीं मिलेगी| यह सब जानने के बाद शायद पिताजी मान जायें|

दीपा के विचार में, किशोर गलत सोच रहा है, इसलिए उसने मुस्कुराती हुई स्नेह ताड़ना के भाव से कहा---- बेटा! जानते हो, हमारी संपत्ति की दीवार ज्यों-ज्यों ऊँची हो रही है, त्यों-त्यों हम पति-पत्नी के बीच की दूरियाँ भी बढती जा रही हैं| अब तो आज के निकले, कल ही घर लौटते हैं| कुछ पूछने पर कटु और उद्दंडता से जवाब देते हैं| तुम्हारे पिता, लोगों के साथ जितना मीठा और नम्र हैं, घर में उतना ही कटु बोलते हैं| उनकी शिष्टता मात्र दिखावा है, बेटा|

            दोनों माँ-बेटे के बीच बातचीत चल ही रही थी, कि दीनदयाल बाबू (किशोर के पिता) आ पहुँचे और मीठे प्रतिवाद के साथ बोले---- पीठ पीछे इतनी बदनामी, वो भी मुझ जैसे भले आदमी की, ये तो न्याय नहीं हुआ|

किशोर, पिता की आवाज सुनकर सहम उठा, और दौड़कर पिता का चरण छूआ|

दीनदयाल भी पुत्र के सर पर आशिर्वाद का हाथ फेरते हुए पूछे---- कब आया, सब ठीक तो है?

किशोर मुस्कुराते हुए कहा---- हाँ पिताजी! सब ठीक है मगर इतनी रात गए कहाँ थे आप? 

दीनदयाल अफ़सोस व्यक्त करते हुए बोले---- अरे बेटा! कोई कैसे कर एक गरीब का सहारा बने, बोलो! 

किशोर, मर्मभरी आँखों से पिता की ओर देखकर पूछा---- क्या बात है पिताजी, मैं कुछ समझा नहीं?

दीनदयाल, आनंद-सागर में डुबकियाँ लगाते हुए बोले---- वो अपने गाँव का भरत है न, जिसका झोपड़ा गाँव के छोर पर है| जिसके साथ तुम बचपन में खेला करता था| उसका तिन साल का बेटा छ: महीने से विस्तर पर पड़ा हुआ है| वह चाहता है कि बेटे का शहर ले जाकर कराऊँ, पर उसके पास पैसे नहीं हैं| इसलिए वह अपना जमीन बेचना चाहता है|

पिता कि बात ख़त्म होने से पहले ही, किशोर पूछ लिया---- उसके पास कितनी जमीन है? 

दीनदयाल बोले---- दो बीघा|

किशोर ने काँपते स्वर में पूछा---- और?

दीनदयाल बेदिली के साथ कहे---- एक झोपड़ा, और कुछ नहीं|

किशोर---- दाम कितना रखा है?

दीनदयाल कहे---- चालीस हजार; मगर जब मैं पैसे लेकर उसके पास गया और जमीन लिखाने की बात कही; तो उसने कहा---- मालिक! मानिकपुर गाँव का बुद्धन बाबू, पचास हजार दे रहे हैं; इसलिए अब चालीस हजार में मैं जमीन नहीं बेचूँगा| 

पिता की बातें सुनकर किशोर की आँखें छलछला उठीं| उसने आँख के आँसू पोछते हुए कहा---- पिताजी! जो जमीन पचास हजार में बिक रही है, उसे आप अपने बुद्धिबल से कौड़ियों के भाव क्यों लेना चाहते हैं? किसी मजबूर को इतना भी परेशान नहीं कीजिये कि जीने से पहले ही वह मर जाए| 

पुत्र की बातों को सुनकर दीनदयाल, क्रोधित हो नाराजगी भरे स्वर में कहे---- वक्त के तूफ़ान में, अगर किसी का कमजोर आशियाना उड़ जाता है, तो इसमें मेरा क्या कसूर है? 

किशोर, भर्राई आवाज में बोला---- आशियाना कैसा भी हो पिताजी, आदमी का जीवन-स्वप्न होता है| यह जरूरी नहीं कि स्वप्न रंगीन ही हो, काला स्वप्न भी, स्वप्न ही कहलाता है!

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