Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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यग्य समाप्ति की वेला, धधक उठी ज्वाला

 

यग्य समाप्ति की वेला, धधक उठी ज्वाला



क्षमा  करो  हे देवाधिदेव, बताओ मुझको

जिस  वेदी  को मैंने  जीवन  सीमा के

काल संगम तक जलाये रखा

प्राणों  का दीप जलाकर ,अश्रुजल से धोया

रुधिर के छींटे , अस्थिखंड की माला

जो  कुछ  मेरे  पास  था,सब उसमें डाला

फ़िर क्यों आई,जब यग्य समाप्ति की वेला

तब   धधक  उठीवेदी की ज्वाला


क्या मैंने भूल किया,क्या मुझसे अपराध हुआ

कौन फ़ूल मेरे पास बाकी बचा रह गया ऐसा

जिसे मैंने वेदीपर नहीं डाला

जो आई जब, उसके तिमिराच्छन्न व्योम को

भेदने  की  बारी ,तब मेरे विदीर्ण हृदय को

भयभीत करने,मेरे मन में फ़ैलाने लगा अंधेरा


याद है  मुझको ,जिस दिन किरण मेरी

तिमिर  छाती  में,प्रकाश बन लहराई थी

उस  दिन से मेरा जीवन साकी मुझको 

दिखलाता  आ  रहा,रीति का  प्याला

हर कदम  पर  अंगारे थे चमक रहे

पर उसने कहा,ये अंगारे नहीं अमरता का 

पथ है,इसके पावक को पीकर शमित करो

झंझा-दिग्भ्रांत की मूर्च्छा होती बड़ी गहरी

इस ज्वलित वेदी को अपना प्रहरी समझो



यही  है  वह ज्वाला,जो पावक को तुषार बनाती

तिमिर प्रलय को जीवन-द्वार तक आने से रोकती

यही  तुम्हारे उर  में मधुमास  की  छवि और 

अधर  में  हास  भरेगा, जीवन-मरु के  प्रदाह में 

जब  तुम थक  जाओगी  चलते - चलते, तब 

हिम  पर  चढ़ ,रविखंड को हिमकर यहीं बनायेगा


इसलिए  भविष्यत के  उत्सव मंदिर के

प्रांगण में घास और काई को न जमने दो

रजनी  में  जाग, अपने  मृदु पलकों से

वहाँ बिछे शूलों को चुनती रहो

मृत्ति तो बिकती बेदाम   यहाँ

तुम क्यों  वृथा  दाम  लगा  रही  हो


उसे पता कहाँ था,मनुज पंचाग्नि बीच

व्याकुल  आदर्शको  पालता आया

ज्वलित  पिंड  को हृदय  समझकर

सदा से ताप सहता आया

रग-रग  में दौड़ रही पिघली आग को

लहू  मान  ज्वाला  से  लड़ता आया


वरना  दिन – रात लहू  की आग में

जलते आ रहे मनुजसे

भविष्यकी गह्वरमें  सो  रहा

जीवन युद्ध के लिए, अपनीही

उँगली पर रखकर खंजर का

जंग छुड़ाने नहीं कहता

न ही पूर्णिमा निशि के चाँद को धूमिल 

घनों  के  जाल  में फ़ंसा ही दिखलाता 


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