यह कैसी श्रद्धांजलि , यह कैसा प्यार
हमारे पड़ोस में एक शख्स रहते हैं, काफी पढ़े-लिखे हैं । अच्छे घराने से ताल्लुक भी रखते हैं । यदा – कदा उनसे मेरी मुलाकातें हो जाया करती है । उनके नाम का रुतबा कहिए, या फिर पड़ोसी होने की वजह, मुझे भी उनसे मिलकर अच्छा लगता है । यूँ तो उम्र में वे मुझसे १०-१२ साल बड़े होंगे, लेकिन जब भी हमारी बातें होती है, तो कोई किसी से बड़ा-छोटा नहीं रहता है । हाँ ! एक बात का ख्याल दोनों तरफ़ से रहता है कि किसी भी हालात में एक दूसरे के वजूद को धक्का नहीं पहुँचे ।
एक दिन उन-होंने मुझसे कहा,’मेरे घर एक छोटी- सी पूजा का आयोजन है । मैं दो रोज पहले ही तुमको बता दूँगा । जिससे ऑफ़िस से छुट्टी न मिलने का तुम्हारा वहाना नहीं रहेगा । मैंने कहा,’ आप प्यार से बुलाएँ और मैं नहीं आऊँ, ऐसा हो नहीं सकता । आप भरोसा रखिए, मैं अवश्य आऊँगी । समय बीतता चला गया ; महीने, छ: महीने हो गए लेकिन उन-होंने पूजा में आने की बात नहीं की । एक दिन मैं ही हँसी- मजाक में बोल गई,’ आपके घर कब आना है । रोज आल, कल में बदल जाता है लेकिन आपका बुलावा आने का इंतजार कभी खत्म नहीं होता है । क्या बात है , पुजा का प्रोग्राम कैंसिल कर दिये क्या ? उन-होंने कहा,’ नहीं, नहीं; असल में क्या हुआ, घर के लोग दो घंटे पहले प्रोग्राम बनाए और आनन- फ़ानन में अनुष्ठान करना पड़ा । तुमको खबर देने की मोहलत ही नहीं मिली ।मुझे माफ़ कर दो, अगली बार ऐसी गलती नहीं होगी ।’ मैंने कहा ,’ठीक है, मगर एक फ़ोन कर देने में तो सिर्फ़ एक मिनट चाहिए था । आप फ़ोन ही कर देते , मैं आ जाती । इस पर उन्होंने बार – बार क्षमा माँगी और कहा,’ गलति तो मैंने सचमुच बहुत बड़ी कर डाली, लेकिन तुम मुझे क्षमा कर दो’ । मैंने भी सोचा,’ आदमी बुरा नहीं है, अच्छा है, तभी तो छोटी – सी गलती के लिए बार – बार क्षमा माँग रहा है ।’
कुछ दिनों बाद उनके एक रिश्तेदार मेरे घर आए । उन्होंने बताया, ’मैं आपके पड़ोस में सुशील जी के घर एक आयोजन में गया हुआ था । आपको सुशील जी से रास्ते में मिलते – जुलते देखा, समझ गया, आप उनके दोस्त हैं । तो सोचा , दोस्त के दोस्त से मिलता चलूँ । कल वापस लौट जा रहा हूँ ।’
मैंने पूछा,’ आपको मैंने कभी देखा नहीं, आप उनके घर कब से हैं ? उन्होंने कहा, ’यही, दश दिनों से । पूजा के चार दिन पहले ही आ गया था ।’ पूजा खत्म हुए छ: दिन बीत गये, अब लौट रहा हूँ । मैं आता नहीं, घर पर अभी काफ़ी व्यस्तता चल रही थी । लेकिन उनके बार – बार फ़ोन द्वारा आने की जिद मैं टाल नहीं सका ।’ सुनते ही मैं समझ गई, पूजा का आयोजन आनन – फ़ानन में नहीं, बल्कि एक सोची-समझी, तय की गई तिथि के अन्तर्गत ही सम्पन्न हुआ । सुशील जी , मुझे झूठ बोले कि बुरा नहीं मानिए, आपको बुलाने का समय नहीं मिला ।
जो भी हो, सुशील जी को मैं यह बताना ठीक नहीं समझी कि आप कितने झूठ का सहारा लेते हैं । वे अपनी मीठी बोली बोलकर, कितनों को अपना मित्र बनाकर, उनके अरमानों से खेलते हैं । मैं तो लगभग इस दुर्घटना को भूल चुकी थी । अचानक उन्होंने, पुन: एक रोज रास्ते में मेरी हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा, ’मित्र ! अगले महीने छ: जुलाई को मेरी माँ का स्वर्गवास हुए ३० साल हो जायगा । मैं हर साल इस तिथि को माँ की श्रद्धांजलि के रूप में मनाता आया हूँ । मंत्री – संत्री, सभी रहेंगे । मैं चाहता हूँ, तुम उसमें आओ ।’ मैने सोचा, लगता है इस बार ये अपनी भूल को सु्धारेंगे । इसलिए तय की हुई तिथि भी हमें बता रहे हैं । मैंने कहा,’ठीक है, मैं अवश्य आऊँगी ।’ चार तारिख को मैंने उन्हें फ़िर फ़ोन किया । सोचा जान लूँ, कितने बजे आना है । फ़ोन पर उनकी पत्नी ने बताया, ’ महाशय, घर पर नहीं हैं, वे बाहर गए हुए हैं, दश रोज बाद लौटेंगे ।’ मैंने कहा,’वो अपनी माँ की श्रद्धांजलि का अनुष्ठान जो होना था, उसका क्या हुआ ?’ मैं बोली,’वह तो हो गया । उनके बाहर जाने के एक दिन पहले ही, क्योंकि छ: जुलाई को उनकी दीदी के बेटे की शादी है । शादी की तिथि तो बदली नहीं जा सकती, इसलिए अम्मा की श्राद्धांजलि दो रोज पहले ही मना ली गई । मुझे बहुत दुख हुआ । समझ में नहीं आ रहा था कि यह शख्स जब सामने होता है, तब हरिश्चन्द्र की औलाद लगता है, लेकिन यह मिरजाफ़र से कम नहीं है ।
इससे बचकर हमें रहना होगा, पता नहीं, कब कौन सी मुसीबत इसके चलते खड़ी हो जाय ।
अचानक एक दिन फ़िर मिले । मैं तो मुँह फ़ेरकर निकल भागने की कोशिश में थी कि उन्होंने मेरा रास्ता रोक लिया । कहा,’ तुम बहुत नाराज हो मुझसे ? होना भी चाहिए, मैं बहुत धोखेबाज हूँ । क्या करूँ, नियति के आगे मेरा कुछ चलता नहीं और लोग समझते , मैंने ऐसा जानबूझ कर किया । तुम्हारे साथ एक बार नहीं, यह तो दूसरी बार हुई । मैं सामने खड़ा हूँ, मुझे जो चाहे , सजा दो । लेकिन मुझसे मुँह मत मोड़ो ।’ मेरा दिल पिघल गया । मैंने कहा, ’वो सब तो ठीक है, लेकिन आपके साथ कोई मजबूरी आ गई थी, मुझे फ़ोन कर देते ।’ उन्होंने कहा,’ फ़ोन कहाँ से करता, मेरा सेलफ़ोन तो चोरी हो गया है, उसमें तुम्हारा फ़ोन नं० भी था ।’ तब मैंने पूछा, ’ सुशील जी ! पिछले साल जो पूजा हुई थी, उसमें आपके मित्र , तिवारी जी भी आये थे । उन्होंने कहा,’ हाँ, वे किसी काम से मेरे घर आए थे । संयोग देखिए, उसी दिन मेरे घर पूजा थी ।’ मैंने कहा,’ नहीं सुशील साहब ! वो तो बता रहे थे, आपने उन्हें १५ दिन पहले खत लिखा; फ़ोन पर भी आने का बहुत आग्रह किया । तब जाकर कहीं वे आए । तो आप झूठ क्यों बोलते हैं ? अब तो उम्र हो रही, उस मालिक के पास जाने का । जवानी भर तो झूठ बोले , अब तो सच बोलिए ।’
तपाक से सुशील जी बोल उठे,’ मेरी माँ, मुझे बहुत प्यार करती थी । मुझे भी माँ से बहुत प्यार था । लेकिन मेरी झूठ बोलने की आदत से कभी- कभी नाराज हो जाया करती थी । कहती थी,’ बेटा ! तुम सच तो क्यों नहीं बोलते ? झूठ बोलना, अच्छा नहीं होता । झूठ बोलनेवाला इनसान, हमेशा किसी न किसी मुसीबत में बना रहता है । अब तो अम्मा नहीं रही, मगर सपने में आज भी मुझसे मिलने आया करती है ।’ मैंने कहा,’आपको जब माँ से इतना प्यार है, तो उनके दिल की जो सबसे बड़ी ख्वाहिश थी, उसे पूरा क्यों नहीं करते ? माँ को आपकी सबसे बड़ी श्रद्धांजलि यही होगी कि आप सच बोलें । नहीं तो, उनकी आत्मा, पुत्र की चिंता में भटकती रह जायगी ।’
सुनते ही उन्होंने कहा,’मैं दुनिया छॊड़ सकता हूँ, लेकिन झूठ बोलना नहीं छोड़ सकता क्योंकि जब तक झूठ बोलता रहूँगा, अभी तक मेरी माँ, सच बोलने की जिद लेकर मुझसे मिलने मेरे सपनों में आती रहेगी । अगर मैंने सच बोलना शुरू किया, तो माँ मेरी तरफ़ से निश्चिंत हो जायेगी । फ़िर कभी मिलने नहीं आयेगी । अब तुम्हीं बताओ कि मुझे सच बोलना चाहिए या झूठ । जब कि किसी भी कीमत पर मुझे माँ चाहिए । माँ को देखे बिना, मैं भी जी नहीं सकूँगा ।’ उनके इस दर्द को मैं समझ पा रही थी; क्या जवाब दूँ कि अनचाहे मुँह से निकल गया झूठ । “ यह कैसी श्रद्धांजलि, यह कैसा प्यार ।“
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