Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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यह नदी प्यासी है

 

यह नदी प्यासी है

             वसंत का अरुणोदय था; आकाश मे तारे झिलमिला रहे थे| दीपक, अपनी माँ सरोज के साथ, गाँव के छोर से बह रही, नदी के किनारे टहल रहा था| टहलते-टहलते, उसने देखा---- सूरज की कोमल किरणें, पहाड़ियों से उतरकर, लहरियों के साथ कूद-कूदकर क्रीड़ा कर रही हैं, और कुसुमों की कोमल पंखुरियाँ वसंत पवन के परों के समान हिल रही हैं| कोयल, आम की डाली पर बैठकर, धरती-वासी को वसंत के दूतों का संदेश सुना रही है| कितने ही प्रभात, दीपक इस नदी के पास टहलने आया था, मगर आज सा अनोखा, दृश्य उसने कभी नहीं देखा था| 

वह अचंभित हो माँ से कहा---- माँ! इस नदी के किनारे इतनी रमणीय जगह भी है, आज से पहले मैंने कभी नहीं देखा, तो क्या विधाता के खजाने में जितने भी सुख-सौन्दर्य, आशीर्वाद थे, सब के सब रात यहीं लाकर उड़ेल दे गये|

सरोज भारी मन से बोली---- नहीं बेटा! यह सब पहले भी था, मगर यह इसकी असली सूरत नहीं है, यह इसका छद्म रूप है| असल में यहाँ श्मशान का सन्नाटा है| न जाने इसने अपना यह छद्मवेश दिखाकर, कितनों को, अपने आलिंगन में भरने के लिये मजबूर किया, और जो भी इसके छलावे में आया, वह दुनिया से ही चला गया| इसलिए बेटा, इसकी ओर एक कदम भी नहीं बढ़ाना|

माँ की बातें सुनकर दीपक सन्नाटे में आ गया| उसने डरते हुए पूछा---- तो क्या, सौन्दर्य केवल देखने की चीज है, माँ भोग करने की नहीं| 

सरोज, आहत भरे स्वर में बोली---- बेटा! तुम नहीं जानते, कभी-कभी किसी क्षुद्र-हृदय के पास, उसके दुर्भाग्य से दैवी संपत्ति, धन, सौन्दर्य उसके दुर्भाग्य का अभिनय करते हुए प्राय: देखे जाते हैं| तब उन विभूतियों का दुरुपयोग अत्यंत अरूचिकर दृश्य उपस्थित करता है| यह नदी भी उन्हीं में से एक है| इसके इर्द-गिर्द राशि-राशि में विडम्बनायें घूमती रहती हैं| फिर भी देखने वालों को, इसकी सफलता ही दिखाई देती है| विश्वास नहीं होता, तो कान देकर सुनो, स्वर्ग के विस्तृत प्रांगण से इसके बंदियों के दम तोड़ने की कातर ध्वनि|

दीपक, एक बार अपनी माँ की ओर देखा, बोला--- माँ! यह आवाज स्वर्ग के प्रांगण से नहीं, ये तो नदी की लहरें हैं, जो पुलिन से टकराकर गंभीर कलनाद कर रही हैं, उनकी हैं| माँ, नदी तो माँ समान होती है| इसके प्यार पर हमें शक नहीं करना चाहिए| हम, आप; मेरे कहने का प्राय, इस धरा पर जितने प्रकार के जीव-जंतु हैं, सभी इसी के पानी को पीकर ज़िंदा हैं| यह जो न होती, यह जीवन-लोक भी नहीं होता| इसलिए मैं कहता हूँ---- यह जीवनदायिनी कहो माँ,  प्राणहारिणी मत कहो|

सरोज, दीपक की बातों से असहमति जताती हुई कही---- सब ठीक है, फिर भी आदमी को किसी का अनुग्रह नहीं लेना चाहिए, क्योंकि अनुग्रह लेने से मनुष्य कृतग्य हो जाता है और यही कृतज्ञता उसे परतंत्र बनाती है|

दीपक ने देखा---- यह कहते, माँ के मुँह पर रोष की रेखाएँ नाचने लगीं, और वह मुखमंडल के पसीने को आँचल से पोछती हुई बोली---- मैं इसे पापिनी, जीवन-नाशिनी क्यों कहती हूँ, सुनो---- आसाढ़ महीना था, और शाम का वक्त| सवेरे से ही उमस थी, पुरवाई से घनमंडल स्थिर हो रहा था| देखते ही देखते शीतल पवन का झोंका आया| पागल प्रकृति ने पर्णकुटी को घेरकर जैसे ही स्पर्श किया, नदी उन्मादिनी हो उठी| यह देखकर तुम्हारा बड़ा भाई, आकाश के तुषार-तुल्य ह्रदय में बिजली कौंध गई, और वह नदी की उस सुंदरता को नजदीक से अपने अलकों के पाश में बाँधने जैसे ही आगे बढ़ा, शांत स्थिर दीखने वाली यह नदी, जिसका यौवन अग्नि-निर्वेद की राख से ढँका हुआ था| वदन पर मुस्कुराहट और अंग पर ब्रह्मचर्य की रुक्षता लिये सो रही थी; अचानक जाग उठी, और रूप बदलकर, उसे अपनी बाँहों के आगोश में लेकर इतनी जोर से दबाई कि वह निढाल होकर वहीँ, उसकी बाँहों में सो गया| मैं राह ताकती बूढी हो गई, मगर वह लौटकर घर नहीं आया| बेटा! घृणा से घृणा उत्पन्न होती है, प्रेम से प्रेम, वह चाहती तो अपने शरणागत के साथ सदाचार के नियमों को निभाकर इतिहास के पृष्ठों पर अपना नाम छोड़ सकती थी|

दीपक, करुण शब्दों में कहा---- माँ, लेकिन पृथ्वी के कण-कण को जीवित रखने का जिम्मा इसी के पास ऊपरवाले ने दिया है, और बखूबी इसे निभाती भी है| वरना, यह भूखंड, स्वर्ण-खंड नहीं कहलाता|

सरोज, दीपक का तर्क सुनकर, क्रोध में अपने होठ चबा ली, किन्तु संभलकर बोली---- बेटा! तो क्या, अपनी शरण में आये हुए की रक्षा करना उसका धर्म नहीं था| जब इसने ऊपर वाले से धरती के जीवन को बचाये रखने का भार लिया, तो उसे निभाया क्यों नहीं? मैं तो यही जानती हूँ, चाहे कोई भी हो, हर किसी को, अपने धर्म पर प्राण देने के लिये उद्यत रहना चाहिए| मेरा बेटा, इस नदी का क्या बिगाड़ा था, वह तो एक शांति प्रिय सुख-स्थान की खोज में इसके पास आया था| मगर ये अपनी महानता का आचरण छोड़, अपने स्वार्थ मोह में, अपने बहुमूल्य उद्देश्य को ही भुला दी| नित्य नये-नये शृंगार करने वाली, अपने मुख्य उद्देश्य से क्यों भटक गई?

         संसार कहता है, गुण के सामने रूप की कोई हस्ती नहीं| हमारे नीति-शास्त्र के आचार्यों का भी यही कथन है; पर वास्तव में यह कितना भ्रममूलक है|
 

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