चाहते हो अगर मुझे जानना
तुम चाहते हो, अगर मुझे जानना
तब पहले विश्व संगर की अदभुतभूमि
अजय योगियों का धाम,भारत को जानो
जिसे अपने प्रीति-पाश में बाँधने सूरज
क्षितिज पर टकटकी लगाये बैठा रहता
निशि हीरक ओस-हार लिये, तारों का
दीप जलाकर ढूँढ़ती फ़िरती ,उसे जानो
इसके बाद सदाचार की दिव्य आभाओं से मंडित
जन मंगल हित अवतरित हुए जो,धरा पर मनुज रूप
भूमि का अंधकार हरने, कौशल्या-पुत्र राम को जानो
जो पिता वचन का पथ प्रशस्त करने ,आदर्शों की
छायाओं को नव देने , माँ की मीठी
गोद छोड़कर प्रलय वेदी पर खिलने ,वन गये
हम रहें कहीं, पर दूर नहीं आपके मन से , कह गये
ऐसे तो भारत माँ की दुखमय गाथा
उदधि समान अनंत है ,मगर उसे छोड़ो
लेकिन हाड़-मांस के जिस पुतले को संसार
देवता समझ , रोली-चंदन , हार पहनाकर
पूजता आ रहा, जिसने सत्य और अहिंसा
का दीप जलाकर,विश्व को आलोकित किया
उस महान संत गांधी को जानो
विश्व मुकुट वसुधा का कर्म कलश
अमृत आनंद ज्योति का निर्झर
जो सृष्टि काल से स्वयं विष पी
तृषित जग को अमृत पिलाता आ रहा
जिसके उपकूलो में , छिपी भारत की
गौरव गाथा कृति सुरभि बन गमक रही
जो सदा से निभाता आ रहा, भारत से
बड़े भाई का नाता,उस हिमालय को जानो
उसके बगैर अधूरी है भारत की कथा
मैं नही चाहती वीर सिकन्दर के गौरव का प्रतिभू
सैल्यूकस को जानने से पहले, तुम मुझे जानो
जो मगध नरेश चन्द्रगुप्त के बल को बिना जाने
मगध को छिन्न- भिन्न करने चला आया
बावजूद उसके संग चाणक्य का क्या बर्ताव रहा
जो जय- पराजय, दोनों में ही आकाश की
तरह एक समान रहते थे खड़े, उनको जानो
अब वीर वंदना की बारी है ,तो सुनो
यहाँ भाँति –भाँति की तसवीर सजी है
किसे पहले देखना चाहोगे , बोलो
युग इतिहास भरा है,भारत की वीरगाथा से
पहले किसे सुनोगे , कहो
किस पन्ने को पहले उलटाऊँ और
किसे बाद में , तुम कुछ तो बोलो
जब तुमको निर्दिष्ट देश का ग्यान नहीं
ध्रुव का पहचान नहीं, मैं क्या करूँ, सोचो
मिट्टी पर खींचकर विजय की रेखा लाल
जिसे मिटा न सका अब तक काल
जो, दो गज झीनी कफ़नी में लिपटे
आँखों में स्वतंत्र भारत का स्वप्न लिये
विदा हो गये यहाँ से, जो अनल ब्रह्म थे
अमृत और विषलता,दोनों को निचोड़ रस
पिया करते थे, उस भगत सिंह को जानो
इतना सब कुछ जानने के बाद भी
तुमको है मुझे जानना , तो सुनो
मलय नील को , अपने कंधे पर
बिठाकर जिन सब ने तीनो लोक
का सैर कराया, जो दीप अपनी ज्योति
पसार झाड़ी -झुरमुट में बुझ गये थे
जिन्होंने इन्हें फ़िर से जलाया
वे थे पंत ,प्रसाद, दिनकर और निराला
जिस मिट्टी में ये जनम लिये, पले-बढ़े
मैं भी वहीं की हूँ, नाम है मेरा तारा
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