देवों का दिव्य रूप ( भगवान महावीर )
------ डॉ० श्रीमती तारा सिंह, नवी मुम्बई
हे प्रभु ! भक्त कामना के अनुरूप
तुमने लेकर, देवों का दिव्य रूप
आज वहाँ प्राण क्षुधा और
मनोदाह से अपने ही हाथों मरने का
सामान तैयार कर रहा मनुज
ध्वंस होता जा रही , श्रद्धा
संयम , आदर्श और सत्य का स्तूप
उषा के मयंक में रहता निराश रूप
जगत प्रकृति से दूर चला जा रहा
अखंड व्योम खंड –खंड में बंट रहा
काट- काट कर ,मुण्ड पताका फ़हरा रहा
प्रचंड ज्वाल की लाल लपट सरीखा मनुज
तपोभूमि के अशब्द कुंजों में, जहाँ स्वर्ग से
उतरकर महावाणी हुई थी अवतीर्ण
डाली में काँटों संग खिलते थे नवीण फ़ूल
ग्यानी, तपी, मुनि डालते थे आकर अपना डेरा
वहाँ मरी हुई शांति का, हाड़-मांस है बिखरा हुआ
दुराचारी मनुजों ने बड़ी निर्ममता से,उसे मार डाला
तुमने सिखलाया, जीओ और जीने दो
निर्जल सरित किनारे अर्द्ध दग्ध तरु पर
तुम्हारी मधुर पुकार से अगर कोई
नवीण कोपला फ़ूटना चाहता, तो फ़ूटने दो
मगर, चिर दुराचारी मनुज विप्र, नहीं मानता
कहता तुम अपनी वाक चपलता रहने दो,प्रभु
वो दिन बीत गये, जब बात-बात पर
तुम्हारे आगे मनुज था नाक रगड़ता
चाँद -तारे तुम्हारे इशारे नाचते थे कभी
मगर यह बात है बहुत प्राचीन
अब तो सर्वत्र प्रकृति पर आसीन है पुरुष
मनुज गिरि-पर्वत,सागर-समुद्र पार करता
एक समान, अब नहीं प्रकृति के अधीन
इसलिए प्रभु ! परागों की चहल-पहल अब यहाँ
पहले सी नहीं रही, जो तुम्हारे रहते होती थी कभी
हरित कुंज की छाया वसुधा,अब आलिंगन नहीं करती
फ़ूल - भँवरे रेखाओं में होने लगे अंकित
इसलिए नव चेतना ,नव जीवन का, भू को
देने वर ,एक बार फ़िर से धरा पर उतरो प्रभु
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