Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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एक खिलौना चाहिये

 




वह्नि , बाढ़ , उल्का ,  झंझा  के  भू  पर

आत्मा न्योछावर है , रक्तमांस  पर

जीवन का प्रासाद रहे गौरवमय

सब  के  हृदय  में, आशा  और  अभिलाषा

का नामहीन अभिशापित विहग,मन के स्वर्ग

लोक  की  नीव  हिलाने , चिल्लाता  रहता

कहता जहाँ   आदमी  का  मूल्य  केवल

मुट्ठी  भर  राख , क्या  होगा  वहाँ  जीकर


इसे शांतकर   रखने , भुलाये  रखने

सोने -चाँदी  का न सही ,माटी  का हीहो

जी  बहलाने  के  लिये  कुछतोचाहिये

जिसे अपना कह सके ऐसा खिलौना चाहिये



केवल  शरीर  को  खिला -पिलाकर

पालनेसे कुछ नहीं होता

क्षुधित  प्राण  को  वक्ष  से अधिक 

नयन का क्षीर  चाहिये

तम  सागर में लौ की कम्पित तरी

जो बही जा रही,उसे किनारा चाहिये






जहाँ बैठकर मनुज निज मन के

रहस्य को  खोल  सके , उस

अगोचर  की  सत्ता को छू सके

जो  धरा पर रखकर, मनुज को

खुद  रहने  गगन में चला गया

उसके संग निभेगा कैसे, दोनों के

बीच  एक  सूत्रधार  तो चाहिये

सोने-चाँदी का न सही,कागज का

ही  हो , एक  खिलौना  चाहिये

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