Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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गरीबी की रात अधिक लम्बी होती है

 

गरीबी की रात अधिक लम्बी होती है

रात के दश बज चुके थे , संगीता खुली हुई छत पर, लेटी हुई थी | जेठ की चमकती चाँदनी में, गाँव की स्त्रियाँ आँगन में बैठकर, संगीता के ब्याह की गीत गा रही थी , जिसे सुनकर संगीता , दिल ही दिल में उमंगों की अठखेलियाँ खा रही थी | चंद्रमा की तरफ टकटकी लगाये संगीता की आँखें मानो चंद्रमा की तरफ उड़ी जा रही थी | उसका रोम-रोम आनंद से नाच रहा था | वह इस तरह चंद्रमा को मींच-मींच कर आलिंगन करने लगी , मानो यह सौभाग्य उसे फिर कभी नहीं मिलेगा | उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था, कि चंद्रमा भी सहस्त्रों तारों से संगठित होकर उसके करपास में चिपट गया है | भाँति-भाँति के छोटे-बड़े तारे का आपस में कभी प्रेम से मिल जाना, कभी रूठकर अलग हो जाना, कभी चलना , कभी ठिठकना देख, उसे आकाशगामी जीवों से इतनी आत्मीयता हो गई , कि वह भूल गई ,’कल मेरी शादी है, और यह चाँद मेरा नहीं है, मेरा चाँद तो कोई और है’ ; जो सुबह होते आयेगा और मुझे डोली में बिठाकर , अपने घर ले जायेगा’ | वह इन सब बातों में तन्मयता से खोई हुई थी , तभी उसका छोटा भाई विश्वंभर , उसे ढूढता हुआ छत पर आया, कहा--- दीदी , सुबह होने वाली है, माँ तुमको बुला रही है , नीचे चलो |
संगीता चलो, आती हूँ बोलकर नीचे उतर आई ; माँ ( शिवनंदनी ) से पूछी---माँ ! तुम ने मुझे बुलाया है ?
शिवनंदनी आसमान की तरफ देखी, मानो अपनी ख़ुशी में शामिल होने देवताओं से कह रही हो, बोली --- बेटा ! आज तुम्हारी शादी है , घर में विवाह से संबंधित हजारों काम हैं , और वो सभी काम तुमसे जुड़ा हुआ है , इसलिए तुम नहा-धोकर तैयार हो जाओ |
संगीता --- ठीक है माँ , बोलकर मन ही मन अपने होने वाले , जीवन-साथी से मिलने का आनंद उठाती हुई तैयार होने चली गई | ऐसे संगीता की प्रेमाकांक्षा बड़ी प्रबल थी, लेकिन इसके साथ ही, उसे दमन करने की असीम शक्ति भी प्राप्त थी ; लेकिन मनोवृतियाँ सुगंध के समान होती हैं, जो छिपाय्रे नहीं छिपतीं | उसे ससुराल से आये, हर वस्तु ( सगाई की अँगूठी, मेहंदी सभी ), दयानाथ का स्मरण करा रही थी | यह विचार एक क्षण के लिए भी उससे दूर नहीं होती थी , हर वख्त अपने अपने होनेवाले जीवन-साथी से वार्तालाप करती रहती थी | एक दूजे को छेडना, रूठना , फिर मनाना ; इन भावों में उसे बहुत तृप्ति होती थी | इस भावोद्यान की सैर करने में , किसी तरह की बाधा, उसे पसंद नहीं था |
संगीता , एक ऊसर घर की गुलाब थी, उसका गेहुंआ रंग , हिरणी जैसी आँखें, लम्बे-लम्बे घने बाल , कपोलों पर हल्की लालिमा, बड़ी-बड़ी नुकीली पलकें , दांत ज्यों मोतियों की पंक्तियाँ हों , मगर आँखों में एक विचित्र आद्रता जिसमें कष्ट, वेदना और एक मूक व्यथा थी | संगीता, अपना विवाह जितनी उमंगों के साथ की, ससुराल पहुँचकर उतना ही हतोत्साह हुई | पति दयानाथ से तो बहुत कुछ मिला , लेकिन सास ने उसे दूसरे ही दिन, डोरी और कचिया थमाते हुए, बोली---बहू, हम गरीब आदमी हैं, हमारे पास एक गाय के सिवा और कुछ नहीं है | मैं उसके लिए घास लाने जा रही हूँ , तू भी साथ चल | बूढी काया, अब बोझ उठा नहीं सकती | नई नवेली संगीता, सास के मुँह से ऐसी बातें सुनकर भौचक्की रह गई | उसे मानो साँप सूंघ गया हो , वह हतप्रद हो , बिना हिले-डुले कुछ देर तक चुपचाप खड़ी रही; बाद बोली --- चलिये, कहाँ जाना है ? वह नीची आँखें किये राह चलती गई | लोग नई नवेली बहू के हाथ में डोरी और कचिया देखकर हैरान थे | नौजवान ,संगीता के अंगारे की तरह दमक रहे चेहरे को देखकर परेशान ऊपरवाले को कोस रहे थे |
तभी सास (पूर्णिमा) चिल्लाई, बोली ---- अरि वो रूपवती ! मैं भी तेरे साथ हूँ , ज़रा धीरे चल, और हाँ , ज़रा घूँघट काढ़ ले | सभी तुझे घूर रहे हैं |
संगीता, भयभीत होकर निस्पंद खड़ी हो गई | पूर्णिमा पास आकर , नाक-भौं सिकोड़ती हुई बोली----- क्या माँ-बाप तुझमें ज़रा भी संस्कार नहीं भरे; लम्बाई तो ताड़ गाछ की है , मगर अक्ल बित्ते भर की भी नहीं | अरि वो लाड़ो ! , औरत घर की लाज होती है | लाज, मगर तू क्या जाने , तुझे क्या पता, इस लज्जा ने सदैव वीरों को भी परास्त किया है | जो काल से नहीं डरते , वे भी लज्जा के समक्ष खड़े होने का साहस नहीं करते | आग में कूद जाना, तलवार के सामने खड़े हो जाना , इसकी उपेक्षा कहीं आसान है , लाज की रक्षा के लिए बड़े-बड़े राज्य मिट गए | रक्त की नदियाँ बहीं, खून की होली खेली गई |
संगीता , जी माँ जी बोलकर , घूँघट काढ़ ली और चलने लगी | दो दिन की ब्याहता , सर पर टोकरी और हाथ में डोरी -कचिया लेकर, उस खेत में पहुँच गई , जहाँ उसे घास काटना था | टोकरी-रस्सी को एक किनारे रखकर , वह घास काटने बैठ गई | जेठ का महीना था, गजब की गर्मी थी , आकाश आग उगल रहा था, वह गर्मी से परेशान हो , बार-बार खड़ी होकर ऊपरवाले को कोसती थी, कहती थी--- ‘ हे ईश्वर ! मुझ पर रहम कर, कुछ देर ये शोले बरसाना बंद कर , गता है, आज तू मुझे मार ही डालेगा |
एकाएक संगीता, सास (पूर्णिमा) के नजदीक जो आड़ पर बैठी हुई थी, जाकर हाँफती हुई खड़ी हो गई |
पूर्णिमा, संगीता को देखकर खिसियाती हुई पूछी ---- क्या घास खेत में है या यहाँ मेरे पास , जो तू यहाँ मेरे पास आकर खम्भे की तरह खड़ी हो गई |
संगीता, आँखें नीची किये, आर्द्र हो बोली---माँ जी, अब मुझसे नहीं होगा |
पूर्णिमा , होठ सिकोड़कर , ऊपर को साँस खीचती हुई बोली ---क्यों ?
संगीता ---- माँ जी, बड़े-बड़े लम्बे घास ,मेरे पाँव से लिपटकर सांकल की तरह कस देता है, उसे छुडाने में मुझे काफी दर्द होता है |
पूर्णिमा, गुस्से में लाल होती हुई बोली ---बहू ! दर्द का दूसरा नाम ही सुकून है , इसलिए दर्द सहना सीखो | दर्द और वेदना ,सभी तुम्हारी तरह इसी धरती पर रहते हैं | इनसे परिचय करो और इनके संग रहना सीखो |
संगीता , रोनी सूरत लिये , फिर से घास काटने लगी | यह सोचकर कि, किससे कहूँ , कहाँ नालिश करूँ , इनके निर्णय का अपील भी तो कहीं नहीं है |
इधर दीनदयाल ( संगीता के पति ) को पत्नी की, देरी परेशान कर रहा था, वह दरवाजे पर जाकर, उसके आने की राह निहारने लगा | तभी देखा, संगीता , सिर पर घास की गठरी लिये हाँफती, कराहती आ रही है | वह दौड़कर गया और उसके सिर पर का बोझ, अपने सिर पर लेते हुए कहा ---- कल से तुम घास लाने नहीं जाओगी , मैं जाऊँगा, तुम घर संभालना | इतना कहकर , संगीता से , ज्यों लोहा चुम्बक से चिपट जाता है , चिपट गया | यह सब देखकर , पीछे से आ रही , पूर्णिमा के तन की लहर , सर पर चढ़ गई | उसने झल्लाकर कहा--- वाह बेटा ! देह पर तो साबूत कपड़े नहीं हैं, मगर खुले आम दरवाजे पर , लोक-लज्जा की परवाह छोड़कर , कारनामे तो ऐसे कर रहे हो , ज्यों पत्नी नहीं , संसार का साम्राज्य मिल गया हो | अरे बेशर्म ! नौटंकी छोड़ो और कल की सोचो | यह गर्मी, संघर्षों की गर्मी से अधिक चोट नहीं पहुँचाती | इसलिए, इस गर्मी को सहना सीखो , क्योंकि गरीबी अमावस्या की रात से भी अधिक काली होती है , और दुःख समुद्र से विस्तृत |




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