Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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हे सारथी! रोको अब इस रथ को

 

हे सारथी! रोको अब इस रथ को


हे सारथी! रोको अब इस रथ को

मना करो दौड़ने से, विश्राम दो अश्व को

देखो! ऊपर घोर प्रलय घन घिर आया

मित्र सन्मित्र सभी भागे जा रहे

प्रिय! पदरज मेघाच्छन्न  होता जा रहा

अब तो मानो कहा, सुनो मेरे हृदय क्रंदन को

बंद करो अश्रु, मुक्ता गुंथी इस पलक परदे को


चित मंदिर का प्रहरी बन, पुतलियाँ अब थक चुकीं

कहती, पहले सा अब ऋतुपति के घर, कुसुमोत्सव

नहीं होता, न ही मादक मरंद की वृष्टि होती

दासी इन्द्रियाँ, लांघकर मन क्षितिज घर चलीं

हिलते हड्डियों का कंकाल, रक्‍त-मांस को फाड़

बाहर निकलकर, बजा रहा विनाश का साज शृंगी

कहता, दीख रहा हरा-भरा जो तन शिराओं का जाल

उसमें लहू नहीं, केवल जल की धाराएँ हैं बहती


इसलिए केवल व्याकुल होकर, शरद-शर्वरी

शिशिर प्रभंजन के वेग से जीवन पथ पर

दौड़ते रहने से, मघुमय अलिपुंज नहीं मिलेगा

जो एक बार मनोमुकुल मुरझ गया आनन में

व्यर्थ होगा उसे सींचना, वह फिर से नहीं खिलेगा

बूँद जो आकाश से टूटकर, धरती पर आ गिरी

वापस नहीं जाती, मेरे लिए क्‍यों विधान बदलेगा


ऐसे भी झंझा प्रवाह से निकला यह जीवन

इसमें भरा हुआ है, माटी संग स्फुलिंगन

जो लहू को हमेशा तप्त बनाये रखता, जिससे

प्राणी जीवन का कोमल तंतु बढ़ नहीं पाता

द्विधा और व्योम मोह से मनुज को घेरे रखता

मैं ही मर्त मानव का तुर्य हूँ, बोल डराये रखता


इसलिए हे सारथी! जाकर स्वर्ग के सम्राट से कहो

नित उतर रहा जो आसमान से, मनुज जीव अनोखा

उसे वहीं रोको, यह लघुग्रह भूमि मंडल बड़ा संकीर्ण है

कहो, पहले इसका विस्तार करो, इसमें अमरता भरो

उड़ता नाद, जो पृथ्वी से लेकर सुख का कण, जिससे

बनते ऊपर सितारे-सूरज-चाँद, उसे उड़ने से रोको

बेदना पुत्र, तुम केवल जलने का अधिकारी हो

ऐसा मत कहो, बल्कि स्नेह संचित न्याय पर

विश्व का निर्माण हो सके, ऐसा कुछ करो


जब तक इस धरा पर, प्रकृति और सृष्टि

दोनों का सुखमय समागम नहीं होगा

तब तक मंजरी रसमत नहीं होगी, न ही

सौरभित, सरसिज युगल एकत्र खिलेगा

जब तक जीवन के संघर्षों की प्रतिध्वनियाँ

उठकर उर संगीत में विकलत भरती रहेंगी

तब तक मनुज जग जीवन में विरत, स्वप्न

लोक में भी असंतुष्ट होकर जीयेगा

 


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