जग कहता, मैं उसे करूँ याद
जिसे मैं कभी भूली ही नहीं
जो मेरी साँसें बन दिन-रात
रहता मेरे प्राणों के साथ
जग कहता, मैं उसे करूँ याद
उस बिन तेरा जग सूना
खाली नभ का कोना-कोना
कौन सुनेगा, तेरे व्यथित
हृदय का करुण फरियाद
जग कहता, मैं उसे करूँ याद
तीर छोड़ता ध्वनि, मगर यह
कर्ण-भेद संधान किया किसने
कोई नहीं सोचता, न ही तू सोच
कभी तेरे नाम भी पुतेगा इतिहास
जग कहता, मैं उसे करूँ याद
अवनि से अम्बर तक धघक रहा
लहरा रही, दुख-पीड़ा की आग
कर चिग्घाड़, तू मौन को त्याग
अब रहा कहाँ री, तप करने का काल
मत पी अपने अश्रु जल को
अंज़लि में भर-भर के तू
चढ़ती नहीं गगन पर वेदना
जलद की माला, रख तू याद
छोड़ जिद् क्यों पालती है तू ऐसी आस
चल, चढ़ाता उस पर अँसुओं का हार
अश्रुजल धूलित सुदर होता निशीथ
वेदना यहाँ, तृष्णा का स्पर्श पाने
खुल-खुलकर करती चित्कार, मृत्यु सदृश
दृष्टि शीतल, निराश से आलिंगन करती
मौत, छाती से लगाकर करती उपचार
कहती, तुम जिस तिमिर को अपनी पुतली की
डोर से बाँधना चाहती हो, उस तिमिर से आगे
और भी तिमिर है जिसका, न कहीं पारावार
इसलिए, इच्छाओं की मूर्तियाँ जो
घूम रहीं तुम्हारे मन में, जिसे गले लगाने
तुम तड़प रही, कर रही हो हाहाकार
उसे यहीं इसी मिट्टी पर उतार
गंध-छाया का पुजारी, तुमको केवल
मिला है, जलने भर का अधिकार
वारि उद्देलित, नभ नीलिमा
किसकी आँखों को अच्छी नहीं लगती
तारे दुलकाकर अपनी आह, राहों को करते गीली
मनुज से कहते मेरी तरह, नयन से तीर
मत उफना, संग बह जायेगी, उनकी चाह
ऐसे भी सीमाबद्ध मृत्यु से आगे
जीती नहीं कोई प्रीति, करता नहीं प्यार
फिर क्यों सुलग रही तुम तिल-तिल
पल-पल कर रही, अंतरदाह
तुम क्या सोचती, तुम्हारी व्यथित आँखों में
मेघों का पुंज देखकर, तिमिर के घोर अंधकार से
उतर आयेगा कोई शिल्पी, और तुम्हारे मन की
अभिलाषा को मूर्तकर पूर्ण करेगा तुम्हारी चाह
देखते नहीं आकांक्षा की तीव्र पिपासी
लहरें कैसे दौड़-दौड़कर, तट से टकरा
टकराकर प्रकट करतीं अपना उद्गार
उड़ते मेघों को बाँहों में भरतीं
हृदय समाधि कानन में देती उसे आकार
तुम वह्नि को प्राण की चिरसंगिनी समझ
मत दौड़ लगाओ, भूमि से आकाश
मर्त्य नर का भाग्य यही, मरूस्थल की तपन में
आराधना का मार्ग ग्रहण कर, पीटते रहो कपाल
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