कफ़न की तलाश
बुढ़ापे का एकमात्र सहारा, अपनी लाठी को आँगन के कोने में रखते हुए रामदास, अपनी पत्नी झुनियाँ से कहा---- जानती हो, चमेली की माँ, हमदोनों के अरमानों के मेले में, चाहत की उँगली थामकर चलने वाला सुख, कब कहाँ गुम हो गया, हमें पता भी न चला। हम तो पेट की भूख को मिटाने की धुन में भूखे-प्यासे, नदी-नाले, पर्वत-खाई, सबों को पार करते, चलते रहे। इतना कहते रामदास की आँखों के आगे निविड़ अंधेरा छा गया, और वह अपनी आँखों की शून्यता में हाथ फ़ैलाकर बेहोश हो गया। यह देख झुनियाँ घबड़ा गई, फ़ूट-फ़ूटकर रोने लगी। अपने पति के मुँह पर पानी के छींटे मारती हुई, ऊपर की ओर मुँह कर ईश्वर को धिक्कारते हुए कही---- हे ईश्वर! अब अपना जीवन मुझे असह्य हो रहा है; मुझसे जितना हो सका, तुम्हारे दिये प्रकोप को झेली; अब और सहा नहीं जाता। तुम अपने पंजे से मुझे आजाद कर दो, तुम्हारे हाथों मेरा सुहाग लुटा जा रहा है, इनके बिना कैसे जीऊँगी? तुमको पता है, मेरे पास वर्तमान के सिवा कुछ नहीं है, भविष्य की फ़िक्र हमें कायर बना दी है और भूत का भार हमारी कमर तोड़ दी है।
तभी रामदास ने अपनी बंद आँखें खोलीं, देखा---- पत्नी का रो-रोकर बुरा हाल है। उसने झुनियाँ का हाथ अपने हाथ में लेते हुए ,वेदना भरे स्वर में कहा---- झुनियाँ! मुझे माफ़ कर दो, मैं अब तलक गलत ही कहता आ रहा था कि मातॄत्व महान गौरव का आसन है, इसमें आदर और सम्मान है। पति की आँखों से बहे जा रहे आँसू को अपने आँचल से पोंछती हुई झुनियाँ बोली---- नहीं, आप ठीक कह रहे थे, लेकिन आप भूल गये कि इस महान आसन में अनादर, धिक्कार और तिरस्कार भी है। अगर मातॄत्व को विश्व की सबसे बड़ी साधना, सबसे बड़ी तपस्या, सबसे बड़ा त्याग और सबसे महान विजय माना गया है; तो फ़िर मेरे साथ इतना क्रूर बर्ताव क्यों है? क्या इसे उस आसन का हिस्सा मान लूँ?
रामदास, दीनभाव से झुनियाँ की ओर देखते हुए बोला---- चमेली की माँ, जहाँ आदमी दोषी है, वहाँ ईश्वर को शामिल कर ,उसे दोषी करार देना ठीक नहीं, कभी तो उसे बख़्श दो। मैं जानता हूँ, तुम्हारे त्याग और सेवा की जिन शब्दों में सराहना की जाय, वह थोड़ा होगा, लेकिन कभी मेरी भी चित्त की दशा के बारे में सोचा करो। वो , भावनाएँ जो अब कभी भूलकर मन में नहीं आती, जो अब किसी रोगी के कुपथ्य-चेष्टाओं की भांति मन को उद्विग्न करती रहती हैं; उसका क्या करूँ?
पति की बातों को सुनकर झुनियाँ मानो गज भर धरती में धंस गई। यह देखकर रामदास अपराधी भाव से बोला---- मैं तो बस इतना कहना चाह रहा था, दूसरे तो दूसरे, तुम्हारे अपने भी धनोन्माद में तुम्हारी गरीबी का मखौल उड़ाते हैं और तुम ईश्वर को दोष देती हो, जो गलत है।
झुनियाँ, पति की बात सुनकर, अभिमान भरी हँसी के साथ कही---- तुम सही कह रहे हो, लेकिन ऊपरवाला जो चाहे,कि सभी प्राणीमात्र सुख-सम्पन्न रहे, तो ऐसा करने से उसे किसने रोका है? उसकी आग्या के बिना तो पत्ता भी नहीं खड़कता, फ़िर इतनी महान सामाजिक व्यवस्था उसकी आग्या के बिना क्योंकर भंग हो सकती है; जब कि वह स्वयं सर्वव्यापी है। तो फ़िर अपने ही द्वारा बनाये आदमी को, इतने घॄणोत्पादक अवस्थाओं में भी जिंदा क्यों रखता है?
रामदास कुछ देर तक शोकमय विचारक की भांति बैठा रहा; फ़िर दुखित स्वर में बोला---- झुनियाँ! तुमने सिर्फ़ अपने तिरस्कार, और अनादर की बात कही, कभी मेरे बारे में भी सोचा; किस-किस तरह से पेट काटकर एक–एक कपड़े को तरसता हुआ,पैसों को प्राणों से सींचा करता था? किस तरह तुमलोगों को दो बेले की रोटी की व्यवस्था कर खुद पानी पीकर सो जाया करता था। आज उन सारे बलिदानों का इनाम तुम तो देख ही रही हो? तुम तो जानती हो झुनियाँ, कॉलेज की तीन सौ रुपये की नौकरी से, घर का खर्च पुरता नहीं देख, मैं ट्यूशन करने निकल गया था। एक दर से दूसरे दर, शाम पाँच बजे से रात बारह बजे तक कुछ पैसों की खातिर भटकता–फ़िरता था। लेकिन जिस दिन किसी छात्र के माता-पिता , यह कहकर दरवाजे से चले जाने को कहते थे, ‘सर! अब आपकी जरूरत नहीं है, आप कल से नहीं आयेंगे’। सुनकर मैं भीतर-भीतर रो पड़ता था और ज्यों घोड़ा ,पत्ते की खड़खड़ाहट सुनकर एक जगह ठिठककर खड़ा रह जाता है, मैं भी वहीं खड़ा रह जाता था। मानो पाँव में वो बल नहीं, कि मैँ पैर उठा सकूँ, लेकिन बार-बार जब छात्र का पिता, अपनी कड़वी भाषा का चाबुक मारता था, तब पैर स्वत: चलने लगता था। उसी अपमान और अनादर का बरकत कहो, आज तुम्हारा दोनों बेटा ऑफ़िसर बन गया है।
झुनियाँ ने देखा, यह कहते हुए, पति के चेहरे पर अफ़सोस नहीं, स्निग्धा छलक रही है, जिसे देखकर उसकी आँखें डबडबा आईं। उसे लगा, इतना के बावजूद, एक पिता के हृदय, में उल्लास का कंपन हो रहा है; फ़िक्र, निराशा, और अभाव से आहत आत्मा, यह कहते हुए कितना कोमल और शीतलता का अनुभव कर रही है? कठोरता की गरिमा की जगह माधुर्य खिल रहा है, जैसे-कोई विभूति मिल गई हो, जिसकी कामना अप्रत्यक्ष होकर भी उसके जीवन में एक रिक्ति, एक अपूर्णता की सूचना देती रहती थी। आज उस रिक्ति में जैसे मधु भर गया हो, वह अपूर्णता जैसे पल्लवित हो गई हो, आज उसने फ़िर से पुत्र–प्रेम में खुद को एक पिता पाकर मानो उसकी वर्षों की तपस्या फ़लीभूत हो गई हो।
झुनियाँ पति की ओर देखकर मीठे तिरस्कार के स्वर में बोली---- पिता की बहादुरी तो इसमें नहीं होती कि पुत्र के पैरों पर गिरकर, उसे अपनी ओर झुकने के लिए मजबूर करे। अरे संतान के हृदय में जब तलक माता-पिता के प्रति निर्मल प्रेम नहीं होगा; वह अपनी आत्मा के विकारों को शांत नहीं कर सकता। उसमें लालसा की जगह उत्सर्ग और भोग की जगह तप नहीं आ सकता। केवल पद-रज को माथे से लगाकर पुत्र का कर्त्तव्य माँ-बाप के प्रति पूरी नहीं हो जाती। फ़िर सहसा शोकसागर में डूबती हुई बोली---- जानते हो, सेवा और अनुराग, ईश्वरीय़ प्रेरणा के बिना नहीं मिलती, तुम्हारा बेटा अपना जीवन स्वार्थ की उपासना में लगा रहा है। उससे ऐसे संस्कार की आशा बेईमानी होगी।
पत्नी की बात सुनकर रामदास, आशाओं से भग्न, कामनाओं से खाली, भर्राई आवाज में कहा---- देवी! यह सत्य है कि उसके व्यवहार में माँ-बाप के प्रति निष्ठा कहीं से नहीं दीखती, लेकिन अब यह देखने का समय नहीं है, बल्कि यह सोचो, आगे हम दोनों का यह जीर्ण बुढ़ापा कटेगा किसके सहारे?
रामदास पत्नी से अपने सवाल के उत्तर की प्रतीक्षा कर ही रहा था कि उसके कानों में किसी के सिसकने की आवाज सुनाई पड़ी, मुड़कर देखा---- तो झुनियाँ रो रही थी।
रामदास, पत्नी का हाथ पकड़कर समझाते हुए, साधुभाव से कहा---- मैं जानता हूँ, अपने आत्मज को खोने का गम, तुमको डरा रहा है, लेकिन जहाँ विश्वास की जगह संशय और सत्य की जगह शंका मूर्तमान हो गया हो; ऐसे आदमी के लिए परोपकार में भी स्वार्थ नजर आता है, वह तो हमारे दुख-सुख से भी कोई सरोकार नहीं रखता।
झुनियाँ, चकित नेत्रों से पति की ओर ताकती रही, मानो कानों पर विश्वास नहीं आ रहा हो। इस शीतल क्षमा ने उसके मुरझाये हुए पुत्र-स्नेह को हरा दिया। वह निर्मम भाव से बोली---- ऊपरवाले के सहारे!
रामदास, माफ़ी, व्यंग्य और दुख भरे स्वर में बोला---- उसे तो दोषी तुम पहले ही करार दे चुकी हो, वो भला तुम्हारा सहारा क्यों बने?
झुनियाँ रोते हुए बोली---- वो इसलिए, कि इस भूपृष्ट पर आगे भी वह दयावान कहलाने के लिए बचा रहे। जानते हो---- ऐसे ही विलक्षण लीलाएँ करके तो वह इस धरती पर की मानव-आत्माओं में अपना निवास बनाया है।
झुनियाँ का उत्तर सुनकर रामदास चुप हो गया। कुछ देर दोनों के बीच सन्नाटा छाया रहा, फ़िर झुनियाँ निस्तब्धता को तोड़ती हुई बोली---- चलो, उठो भी, कुछ खा लो; वरना आगे इससे भी अधिक कष्टप्रद दिन आने वाले हैं, उसे झेलोगे कैसे?
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