आँखों की खिड़की से खड़ा
मैंदेखरहा अकेला
शमा की झालरें खुलने लगीं
चतुर्दिक घिरने लगा अंधेरा
कोटि-कोटि वर्षों का क्रममय
जीवन में खो जाने, कुछ
लोग पहलेही जा चुके
कुछ जारहे , कुछ
कर रहे, जाने की तैयारी
लगता खतम हो गया मेला
कोई पोछ पसीना कह रहा
अबनहीं हमें यहाँ आना
यहाँ विश्व विटप की डाली को
झकोर हिलाता, पाँव के
नीचे सिंधु उत्ताल लहराता
भयभीत मनुज जीवन पर्यंत
अपना पाँव समेटे जीता
बड़ी निर्घृण होती इस मर्त्त-
लोक पर मनुजों की जाति
आज कायाकी धूम होती
सुबह के पहले ही बुझ जाती
आकाश, मनुज की सिसकियों
और चित्कारों से भरा रहता
अंधेरे में भी उठ खड़ा हो
जाता, अंतर मन की बेकली
ताम्र व्योम सा मानव वन में
जब प्रकृति तपती , तब
जाकर जीवन को मिलती, गति
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