कोरोना आई है, ममता के संग
रोजी-रोटी की तलाश में सुकेश दुबई चले जाने के बाद, सुभाषिणी महीनों आनंद-कल्पनाओं में बैठी रही| जिन भावनाओं को उसने कभी मन में आश्रय नहीं दिया था; जिनकी गहराई, विस्तार, और उद्वेग से वह इतनी भयभीत थी, कि उनमें डूब जाने के भय से, चंचल मन को इधर-उधर भटकने भी नहीं देती थी| वह दिन-रात खुद को, घर के काम-काज और बच्चों में उलझाए रखती थी|
एक दिन सुभाषिणी, अपने तीन साल का बेटा, रोहित को लेकर चारपाई पर लेट गई| माँ की छाती से लिपटते ही बालक बेखौफ होकर सो गया, और सुभाषिणी करवटें बदलती रह गई| तभी सुभाषिणी का बड़ा बेटा, नयनसुख, जो कि बच्चों के साथ दरवाजे पर खेल रहा था, दौड़ता हुआ आया और हाँफता हुआ, सुभाषिनी से कहा, ‘माँ!, माँ! उठो, जल्दी चलो, दरवाजे पर चलकर देखो, ‘बाबू! दुबई से लौट आये हैं|
सुभाषिणी, ‘पति के आने का समाचार सुनकर उठ बैठी, और नयनसुख का हाथ पकड़ कर दरवाजे पर जाने के लिए दौड़ पड़ी, मगर तत्क्षण उसके कदम ठिठककर रूक गए, मानो किसी ने उसके पैर में साँकल बाँध दिया हो|
माँ का इस तरह रुक जाना, नयनसुख को अच्छा नहीं लगा| उसने झुँझलाकर कहा, ‘माँ! चलो न, दरवाजे पर बाबू आये हैं|
सुभाषिणी की आँखें, जो पति को खोजती हुई महसूस हो रही थी, रोती हुई बोली, ‘बेटा! बाबू के करीब मत जाना| वे अकेले नहीं हैं, उनके साथ कोरोना की पैशाचानिक सेना भी आई है, जो हम सब को मार डालेगी|
नयनसुख, करुनाभरी दृष्टि से माँ की ओर देखकर पूछा, ‘माँ, तब फिर वे यहाँ आये ही क्यों?
सुभाषिणी, ‘वे आ कहाँ रहे थे बेटा, उन्हें माया खींचकर लाई है| यह कहते-कहते सुभाषिणी की आँखों से आँसू बहने लगे| अपने आँसू को आँचल से पोछती हुई, शोकग्रस्त हो बोली, ‘पानी के बुलबुले को फूटने में भी कुछ क्षण लगते हैं; बेटा! मगर इस जीवन में तो उतना भी सार नहीं| इस साँस का भरोसा ही क्या, और इसी नश्वरता पर हम इच्छाओं के कितने बड़े-बड़े किले बनाते हैं| जब कि
यह भी नहीं जानते, नीचे जाने वाली साँस ऊपर आएगी या नहीं? सोचते इतनी दूर की, कि मानो हम अमर हैं|
सुभाषिणी, नयनसुख को रोते देखकर विह्वल हो उठी| उसने नयनसुख को अपनी गोद में बिठाकर छाती से लगा लिया, लेकिन वह सिसकता ही रहा| उसका अबोध ह्रदय पिता के प्यार से और वंचित रहना नहीं चाहता था| वह सुभाषिणी की गोद में बैठा रोता रहा, और रोते-रोते सो गया| सुभाषिणी ने उसे चारपाई पर सुलाना चाहा, तो बालक ने सुषुप्तावस्था में अपनी दोनों कोमल बाँहें उसकी गर्दन में डाल दी, और ऐसा चिपट गया, मानो नीचे कोई गढ़ा हो| लाचार सुभाषिणी ने बालक को गोद में उठा लिया| उसने देखा, ‘नयनसुख, आज जिस आत्मवेदना से गुजर रहा है, शायद ऐसा कभी नहीं हुआ था|
सुभाषिणी का, अब तक निराशा के संताप में, अपने कर्त्तव्य पर ध्यान ही नहीं था| पति-विछोह की असह्य पीड़ा, उसे संज्ञाहीन बना दी थी| जब वेदना शांत होने लगी, उसे लगा कि ईश्वर ने उसके जीवन में जब कोई आनंद ही नहीं लिखा ; उसका स्वप्न देखकर हम अपना जीवन क्यों नष्ट करें?
विधाता ने मुझे सिर्फ और सिर्फ दुःख की गठरी ढोने के लिए चुना है| उसका बोझ अपने सर से उतार नहीं सकती, फेंकना भी जो चाहूँ, तो फेंक नहीं सकती ; चाहे साँस छूटे या गर्दन टूटे| वह दौड़ती हुई, दरवाजे पर गई, देखी, ‘एक सहास्य मूर्त्ति की तरह उसके पति खड़े हैं| उसके रूप को देखकर उसकी आँखें तप्त हो गईं, मगर ह्रदय एक गहरे चोट से छटपटा उठा| पति के चेहरे पर असमय की झुर्रियाँ, उसके दिल को हिला दिया| वह सोचने लगी, तो क्या कोरोना की भीषण वेदना, और दुस्साह कष्ट ने रक्त भी जला दिया ; आपकी दशा मुझसे और देखी नहीं जाती| अंतिम शब्द इतना शोकसूचक था, जिसे सुनकर सुकेश की आँखें भर आईं और कहा, ‘सुभाषिणी! आज के बाद अगर लौटकर फिर कभी न आऊँ, तो समझ लेना, ‘मैं तुम सबसे दूर, बहुत दूर जा चुका हूँ| इतना कहते सुकेश करुणा से विह्वल हो उठे, बोले, ‘जिस पुत्र को क्षण भर आँखों से दूर देखकर ह्रदय व्यग्र हो उठता था, उसी के प्रति आज मुझे इतना कठोर बनना पड़ता है कि मैं उसे गले लगाना तो दूर, अपनी परछाहीं को भी उससे दूर समेटे हुए हूँ ; जैसे कोई शत्रु हो!
जानती हो सुभाषिणी, प्रत्येक प्राणी को अपने हमजोलियों के साथ हँसने-बोलने की जो नैसर्गिक तृष्णा होती है, उसी की तृप्ति का यह अज्ञात मिलन है| अपनी सारी तृष्णाओं को निराशा के सागर में डुबोना मुश्किल हो रहा था| जब यह तपस्या मुझे असाध्य हो गई, तब मैं तुमलोगों से मिलने चला आया|
सुभाषिणी ने देखा, कि उसके मुख की निर्मल कांति मलिन हो चुकी है| गठीला बदन, किसी भिखारी की तरह झुक गया है| वह काफी कमजोर है; इसका कारण उसे पता था, पर वह कुछ कह नहीं पा रही थी| जिसके साथ मरने-जीने की कसम खाई थी ; आज शोक और चिंता की सजीव मूर्ति बनी, पति से कुछ ही कदम दूर चुपचाप सर झुकाए खड़ी थी, पर उसका पीड़ित ह्रदय, पति के सीने से लग जाने के लिए अंतर्नाद कर रहा था|
सुभाषिणी उसी शोकातिरेक दशा में चिल्ला पड़ी, ‘सुकेश! मेरी सारी अभिलाषाओं के तुम स्वर्ग हो, तुम मुझे छोड़कर अब मत जाना| तुम जानते हो न, अपनी मनोवृतियों को रोकना, ईश्वरीय नियमों में हस्तक्षेप है| इच्छाओं का दमन करना, आत्महत्या है ; इसलिए आओ, इस उजड़े हुए दिल को आबाद करें| सुकेश के लिए, इस प्रेमाह्वान का अनादर करना असाध्य हो गया| वह वेग गति से आगे बढ़ा, मगर सुभाषिणी के करीब आते ही उसका चित्त अस्थिर हो गया| आँखों में अंधेरा छा गया, सारी देह पसीने से तर हो गई|
सुभाषिणी, पति को अपने बाँहों का सहारा देने दौड़ पड़ी ; कातर दृष्टि से जब सुकेश की आँखों में झाँकी, तो देखा, ‘सुकेश की आँखें पथरा चुकी थीं| ह्रदय में रुधिर का संचार रूक गया है, और वह कोरोना के साथ, बहुत दूर जा चुका है|
पति -वियोग के बाद, उसकी सुदृढ़ स्मृति को ही सुभाषिणी अपने जीवन-सुख की नींव मान ली, और वही साधु कल्पना उसकी उपास्य है, ह्रदय पति-प्रेम से आलोकित है| उसे लगता है, यद्यपि उसके पति इस दुनिया में नहीं हैं, मगर उनकी आत्मा, यहीं भ्रमण करती रहती है ‘अपनी माया के साथ’|
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