मैं कोई शिशु नहीं
प्रिये ! मैं कोईशिशु नहीं, जो
डाल अपने गले में,सर्पों की माला
समझकर फ़ूलों का हार ,मुसकाऊँ
जब कहे जमाना रोने, तब पाँव
पटक- पटककर रोऊँ , और जब
कहे हँसने, तब ताली दे-देकर हँसूँ
मेरे तो अगम सिंधु की राह चलते-
चलते, दोनों पाँव थक चुके थे
सोचा, कुछ देर यहाँ ठहर जाऊँ
किसने कहा तुमसे,नील नीरद को
देख आकाश में ,मैं चातक सा
मुँह बाये ऊपर की ओर खड़ा था
इस आसमें, किस्वाति
की कोई बूँद मेरे मुँह में आ गिरे
और मैं ,जन्मों की प्यास बुझा लूँ
इसमें संशय कुछ भी नहींकि
मेरी चेतनापराधीनबनी सी
पग - पग पर ठोकरें खा रहीथी
इसलिए कि मैं, जीवन के लक्ष्य समीप
आकर भटक गया,जीवन के सूखे तरु पर
मनोवृतियाँ दीखने लगीं आँखों को हरी
इसका अर्थ यह नहीं होता, मैं अपनी
जीवन किश्ती किसघाट लगाऊँ
मुझे इसका ग्यान नहीं , पता नहीं
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