Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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प्राणी भाग्य बना अशांत

 

प्राणी भाग्य बना अशांत

यह कैसा युग आया भगवान
जिसने भी खेली खून की होली
जग में कहलाया वही महान
उसी ने पाई मर्यादा, प्रतिष्ठा
लोगों ने दिया उसी को मान

अनाचार पर न्याय-नीति का दुनिया में
पग -पग पर हो रहा अनादर, अपमान
गली- गली में मत्त मारुत पर चढ़ कर
काल बन घूम रहा उद्भ्रांत बरसाने इन्सान
जीवन - प्रांगण रक्तमय हो जा रहा
भूतवाद बन जा रहा, धरा-स्वर्ग का सोपान

नभ– धरा की यह कैसी धीरता
करती नहीं कभी कोई आह्वान
नगर प्रांत सब उजड़ चला
प्राणी का भाग्य बना अशांत
पवन सारस्वत,दु:स्वप्न देखता
जीता दुखी , क्लांत , परेशान

कल रवि-शशि कैसे उदित होगा
इस धूलि धूसरित अम्बर पर
कैसे सुख समृद्धि संचार करेगा
कैसे मुक्ति जल की शीतल बाढ़
जगत की ज्वाला को करेगी शांत
तिमिर हरने का भार जिसने लिया है
वही तो रहता पीड़ित,विक्षिप्त, परेशान



लोक जीवन प्रतिनिधि मनुज सोचता
सप्त रंग छाया में विकसित ,मर्त्य अमर हूँ मैं
मेरे अंतर में भविष्यत के शत स्वर्णिम युग हैं
क्यों नहीं हम काल को ग्रसित करने, अपने
वर्तमान का अतिक्रमण कर,उनमें प्रविष्ट करें
और सृजन चेतना के देवों को आत्मसात कर
तूफ़ानों में भी जलने वाली ज्योति बनें

हमें अपने जीवन की मध्य भूमि को
रस - धारा से सिंचित करना होगा
इसके लिए ईमानदारी और निष्ठा को
लक्ष्य की वेदी पर सबसे पहले धरना होगा
ढूँढना होगा देवता स्वरूप एक ऐसा इन्सान
जिसके आगे बिलखती, विक्षिप्त वनश्री
जलधि रहता अतलांत, विदा माँगता कांत

जो जीवन पर्यंत खुद तो दीपक की तरह जलता ही
औरों को भी अपनी कामनाओं की वर्तिका से
जलाये रखता,चरणों के नीचे विधु को लेता ढाँक
झंझा के पंखों पर चढ़ कर ,गिरि,कानन, सागर
ज्वाल बन घूमता- फिरता, ऊपर बादलों में छिपा
चाँद को देख, सोचता क्या शशि भी छुप गया
मुझ सा शक्तिशाली नर की देखकर बलशाली बाँह





जब उसे प्रतीत होता, अपने ही भविष्यत की
मलिन छाया, वर्तमान के मुख पर है रेंग रही
तब वह धरती की छाती को बींधकर
अंधकार के गह्वर से काढ़कर , सुख को
अपने भविष्य के क्षितिज पर सजाना चाहता
कहता कहाँ हो , मेरे शोणित के अग्नि-धर्मा
जागो ! मेरा सुख जिन- जिन तम तोम में
है छिपा सिमटकर, चुन – चुन कर
उन कुंजों में आग लगाओ, मखमली
सेज पर ऊँघ रहे जो,उस पर अग्नि वृष्टि कराओ
अगर आकाश का विस्तार मापना हो
या सागर की गहराई का लेना हो थाह

सबसे पहले, जीवन की चिता बनाकर
जग तिमिर को देता जो उजाला
उससे करो यह सवाल, क्यों आज
नंदन वन में ज्वाला जलती
कोकिला कुंज बीच जीती क्यों उदास

आश्चर्य क्या, ऐसे में अगर कोई मनुज
लेकर किसी शक्रारि का अवतार
लूटता नगर की सिद्धि, सुख – शृंगार
अघोर मूर्ति ध्वंश कर,रुद्र,शृंगी रब रोर बजाता
रज - कण में सोई देख किरण को
अम्बर के कानों में गाता मल्हार



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