Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

सौ में से एक गया, बचा शून्य

 

सौ में से एक गया, बचा शून्य

जिसके चरण-स्पर्श से, भविष्य पर कलंक और तकदीर पर ताले पड़ जायें, ऐसे मनहूस को क्यों चरण-स्पर्श करना । बहुत हुआ, अब तुम कल से बालदेव गुरुजी के पास पढ़ने नहीं जाओगे । आज पहली बार जग्गू मियाँ का न्याय-ग्यान से पैदा होने वाला विश्वास, अपने पुत्र सलीम पर टूट पड़ा । उसने आगे कहा----अपने धर्म का ठीकेदार जतलाने वाला, इतना भी विधर्मी हो सकता है । धर्म की रक्षा सदा प्राणों से हुई और आगे भी होती रहेगी , लेकिन उन्हें कौन समझाये ?
विधर्मी, जिसके पास देवी-देवताओं की कथा सुनाने के लिए न हो, ब्रह्म-ऋषियों के तप और तेज का वृतांत जिसे पता नहीं हो, क्षत्रियों के दान और शौर्य की गाथा न हो, ऐसे आदमी को सरकार , स्कूल का मास्टर बनाकर कैसे भेज देती है, बच्चे कैसे सीखेंगे; मन और कर्म की शुद्धता ही धर्म का मूल तत्व होता है , और यही इस चरित्र में आत्मोन्नति का संदेश है , जिसे सुनकर बच्चों की आत्मा का बंधन खुल जाये । उन्हें भी यह संसार पवित्र और सुंदर दीखें ।
उन्हें तो बस इतना पता है ,100 से में एक गया, तो बाकी रहा शून्य । ऐसे स्कूल में बच्चे बनेंगे क्या , वे तो बच्चों को कुँएँ में ढ़केलने का इंतजाम किये हैं । सोचा था, वयोबृद्ध मास्टर हैं, इतने दिनों तक पढ़ाने का अनुभव है ; बच्चे उनके ग्यान-भंडार से थोड़ा भी हासिल कर सके, तो आदमी बन जायेंगे । फ़िर पछताते हुए जग्गू ने कहा--- किसी ने ठीक ही कहा है, ’दुधारू गाय का थन देखकर हम खुश हो जाते हैं, यह बिना जाने कि इसमें दूध कितना भरा हुआ है ? यह तो तब समझ में आता है जब, मेटिया भरता है, या खाली रह जाता है ? एक हमारे जमाने के गुरुजी थे; पढ़ाई को पूजा और बच्चे को देवता मानते थे । बच्चों को पढ़ाने के लिए , मन को कर्तव्य की डोरी से बांधना पड़ता है । तभी बाहर दरवाजे पर से किसी की आवाज आई; जग्गू ने घर से निकलकर , दरवाजे पर जाकर देखा, तो बालदेव गुरुजी ( मुन्ना के स्कूल-टीचर ) खड़े थे । बालदेव को देखते ही जग्गू लाल-पीले हो गया । धमकाते हुए कहा---- लगता है , नौकरी से आपका जी भर गया है, आपको रिटायर्मेन्ट चाहिये । वो मैं आपको दिलवा दूँगा ; मेरे होते आपको चिंता करने की जरूरत नहीं है ।
गुरुजी ने नम्रता से कहा---- देखिये ! जग्गू भाई, मुझे संसार का आपसे ज्यादा तजुर्बा है ; मेरा जीवन इन्हीं दाँव-पेंचों से जूझता रहा है । अभी आप जो चाहें , मुझे कहिये, लेकिन मेरा दावा है , एक समय आयगा, जब आपकी आँखें मेरी तरह खुलेगीं ; तब आपको लगेगा, जीवन में यथार्थ का महत्व ,आदर्श से जौ भर भी कम नहीं होता ।
गुरुजी की बात सुनकर, जग्गू क्रोध से विकृत होकर बोला-----चुप रहिये , शर्माते तो नहीं, ऊपर से उपदेश दिये जा रहे हैं । 20000/- रुपये बैठे-बिठाये मिलते हैं, आपको क्या पता, धर्म क्या चीज है ? साल में एक बार गंगा-स्नान तक नहीं करते, न एकादशी का व्रत रखते, न ही कथा—पुराण सुनते, और खुद को धर्मात्मा दिखाने की कोशिश करते हैं ।
गुरुजी अपनी दाढ़ी पर हाथ रखते हुए, झल्लाकर बोले ---- बैठे-बिठाये ! आप कहना क्या चाहते हैं ? जग्गू मियाँ------ सरकार मुझे मुफ़्त का पगार देती है ! अरे ! आप क्या जानें, सुबह से शाम तक हम शिक्षक पशुओं के चरवाहे की तरह ,आपके बच्चों के पीछे भागते रहते हैं । कभी-कभी भागते-भागते, इतना क्लांत हो जाता हूँ कि लगता है, ऐसी नौकरी छोड़ दूँ, और आप कहते हैं, मैं बैठकर सरकार के पैसे लेता हूँ ।
जग्गू बिगड़कर पूछा---- वो तो ठीक है, लेकिन आपको तो पढ़ाने के लिए रखा गया; लेकिन आप पढ़ाते क्या हैं------यही कि ’सौ में से एक गया, बचा शून्य ’ ?
जग्गू की बातें सुनकर, गुरुजी हँस पड़े, बोले---- तो आपके गुस्से का बस इतना सा कारण है । तो आपने शुरू में ही क्यों नहीं बता दिया, तब तर्क-वितर्क की जरूरत ही नहीं पड़ती । फ़िर गुरुजी काँपते कंठ से बोले---- मैं भी आपकी तरह ,दो पुत्रों का पिता हूँ । कल तलक उसके माया-जाल में ऐसा जकड़ा रहा कि संसार रूपी उफ़नते दुख-सागर में, नौके का परित्याग कर दिया; कारण मेरी वज्र मूर्खता को यह विश्वास था कि, जिसे मैंने कभी आँखों देखा नहीं, हाथों से छूआ नहीं, वह क्या मुझे भवसागर पार करायेगा । लेकिन ये मेरे दोनों पुत्र, जिसे मैंने जनम दिया, पाला-पोसा, जिसके सुख की खातिर कोई भी पाप करने से मैं जरा भी नहीं डरा, यह सोचकर कि जब जीवन की संध्या आयगी, हाथ-पाँव निबल हो जायेंगे, तब भूख-प्यास और दुख-ताप से विकल होकर इनकी छाँव में मैं बैठूँगा ।
जग्गू उत्सुकता से पूछा------ तो क्या हुआ ?
गुरुजी ने अवरूद्ध कंठ से उत्तर दिया----- आगे की कहानी क्या बताऊँ ? मैं तो समझता हूँ, इस संसार में पुत्र का पिता होना, सबसे बड़ा पाप है, जिसका प्रायश्चित जीते जी कम से कम मैं नहीं कर सका, लेकिन मैंने कभी अपना पिता-धर्म परित्याग नहीं किया और न करूँगा । मगर आप ही बताएँ, है कोई ऐसा प्राणी जो जीवन में कभी विचलित नहीं हुआ हो । अगर ऐसा है , तो वह मनुष्य नहीं, देवता है और मैं मनुष्य हूँ, मैं देवता की पंक्ति में बैठने का दावा नहीं करूँगा ।
जग्गू का धैर्य टूटता जा रहा था, उसने रोषपूर्ण शब्दों में गुरुजी से कहा---- गुरुजी बहुत हो गया । दर असल हुआ क्या है, वो बताइये ?
गुरुजी ठंढ़ी साँस छोड़ते हुए बोले---- मेरी कहानी खतम नहीं हुई है, दुखांत भाग अभी अवशेष है ।
जग्गू उच्च कंठ में गुरुजी से कहा---- तो सुनाइये न ?
गुरुजी , आर्द्र होकर बोले---- जग्गू भाई, जब विश्व की वेदना, जगत की थकावट, धूसर चादर में मुँह लपेटकर क्षितिज के नीरव प्रांत में सोने जाती है, तब मैं भी अपने कमरे में , चुपचाप लेट जाता हूँ, और सूरज की पहली
किरण के साथ उठ जाता हूँ । इस उम्मीद पर , कि इस अनंत ज्वालामुखी सृष्टि के कर्त्ता मेरे अभाव, आशा, असंतोष और आर्तनादों के आचार्य, मेरे जीवन में विषम वेदना का जाल फ़ैलाने वाले दीनानाथ, मुझमें कष्ट की तीव्रता को सहने की शक्ति देगा , और मेरे असमझ पुत्रों को समझ । जानते हैं, मैंने जिस संतान को सुखी रखने के लिए अपने प्राणों का बलिदान कर दिया, भाई-बहनों से नाता तोड़ा; जरा सा सर्द-दर्द क्या होता था, मेरे प्राण-तोते उड़ भागने लगते थे । आज केवल एक गलती मेरी, मेरे पिछले सभी त्याग को हरा दिया और मैं उनकी नजर में शत्रु बन गया । क्या आज के जमाने में प्रेम और विश्वास का कोई अस्तित्व नहीं ; यह केवल भावुक प्राणियों के लिए बचा रह गया है ?
फ़िर विनीत भाव से बोले---- जग्गू भाई, जिंदगी का हिसाब, किताबी हिसाब से बिल्कुल अलग होता है । किताबी हिसाब में सौ में से एक निकालने से निनानवे बचा रहता है, मगर जिंदगी के हिसाब में एक निकल जाने से शून्य हो जाता है ।
जग्गू समझ गया, गुरुजी की पीड़ा क्या है, क्यों इन्होंने कहा---- ’सौ में से एक गया, बचा शून्य’ । उसने हाथ जोड़ते हुए विनीत होकर गुरुजी से कहा---- गुरुजी, आपका पद भगवान से भी ऊँचा है, आपके पास क्षमा है, दया है, और मैं एक याचक ; मुझे आप क्षमा दान देकर पापी होने से बचा लीजिये ।
गुरुजी, हँसते हुए बोले ---- मनुष्य मात्र से गलती होती है ; अगर गलती न हो, तो वे देवता बन जायेंगे, और आदमी देवता नहीं बन सकता ।
ह से ऐसी बातें सुनकर चौंक गई । उसने कभी सोचा भी नहीं था कि जिसे वह जीवन का आधार और आशाओं, आकांक्षाओं का केन्द्र समझकर, बड़ा कर रही, वह इस तरह अपमान कर सकता है । उसने बेटे की बड़ी-बड़ी आँखों की तरफ़ देखती हुई बोली---- बेटा ! तुम जानना चाहते हो न कि मैं यहाँ अकेली क्यों बैठी रहती हूँ , यहाँ मेरा हवन-कुंड है, जिसे तुम्हारे पिता और मैं दोनों ने मिलकर शुरू किया । वे तो अपना हवन अधूरा छोड़कर चले गये, लेकिन मैंने पूरा हवन किया; फ़िर भी पता नहीं, आज मुझे ऐसा क्यों लग रहा है, कि हवन कुंड में डालने के लिए कुछ घट गया । तुम बता सकते हो, वह क्या है ? मैंने इसमें शांति, आराम, भूख, चैन, दर्द, बेशर्मी ; यहाँ तक की लहू भी डाला । फ़िर कुछ कमी रह गई, ऐसा एहसास मुझे क्यों हो रहा है ?
नारायण ,सावित्री की पूछी बातों का कोई उत्तर न देकर, चुपचाप खड़ा रहा, फ़िर जाने लगा ।
सावित्री, आँख का आँसू पोछती हुई कही---- बेटा ! रूक जाओ, तुम तो नहीं बता सके, लेकिन मुझे याद आ गया ।
नारायण आँखें नीची कर पूछा----- क्या ?
सावित्री , दर्द की हँसी हँसती हुई बोली---- हाड़ से चिपके ये चमड़े ! इसे तो मैंने इस हवन कुंड में डाला ही नहीं ।



Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ