Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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शिशु

 



शिशु


तू  ईश्वर का रूप साकार

तू  फ़ूलों  से भी सुकुमार

तेरी तुतली वाणी को सुन

सुरभिमय हो जाता संसार


तू चिर निश्छल

मल्लिका  सा  निर्मल

तू स्वर्गसुधा

तू नभविभा

तूसुखसागर

तू जीवन  का  सार

तुझे  गोद  में उठाकर

दुलराने,खड़ा रहता जग

अपनी बाँहें पसार


तू  जग  से  अनजान

तेरा  न  कोई पहचान

फ़िर  तेरासांद्र नयन

करता किसका इंतजार

किसके  लिए  नींद से

तू  उठ  जाग  बैठता

कौन है वह, तेरा प्यार






कौन परी चंद्रलोक से उतरकर

मिलने  आती तुझसे चुपचाप

तू रो-रोकर ,सिसक-सिसककर

करता  उस  संग  मौनालाप


तू एक सफ़ल चित्रकार

अपनी चंचलता से 

तू  कितनी  ही  आशाओं  का

चित्र बनाता,  भरता  उसमें

अपने  मनोभावों  का  खुमार

जिसे देख जग अचंभित रहता 

करता  अपना सर्वस्व निस्सार


तू लहरसा कोमल

फ़ूलों से भी हल्का तेरा भार

किस  शिल्पी  ने तुझे गढ़ा

तेरेअंग  -  अंगपर

है  सोने  कापानी चढ़ा

देखता  जो  तुझे  एक बार

देखने तरसता बार - बार





तू  जगत  की  आशामय उषा

तू सुख छाया, सुंदरनिशा

तेरी  हँसी  के  स्वर्णिम गुंज से

कुंज-कुंज में खिलते सकल सुमन

नभमें  तेरे  हीस्वरका

बिखरा रहतामृदुतरंग

जिसे  सुनने  नक्षत्रोंका  दल

वहाँ बैठा रहता, तुझको  ही

कर परस, सुरभितहै  पवन


तू जब निज भोले नयन से

देखता  जग  कोनिहार

तब  जग  देता  तुझ  पर 

अपने  दृष्टि-पथ से सकल 

संचित स्नेहढार


पता  नहीं , तुझमें   है देवोंका

क्याआशीर्वाद छुपा हुआ

जो  पाषाण  हृदय भी मोम बन जाता

जब बनता तेरामाता - पिता

उनके  पुलक  पाश  में  अपने  आप

खिलने लगती स्नेहलता

पलकों से लिपट खेलने लगती,कल्पनता



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