Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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सिवा तुम्हारे कौन है अपना

 





तुम्हारे सिवा कौन है अपना मेरा

किसके पास है इतनी फ़ुर्सत,जो

मेरी ढलती उम्र के साथ बैठकर

बिता  दे ,अपना  पल  दो पल


पूछे,  धरा  पररजत  झाँझर  से बज रहे

तरु  दल , मधुरव  से  गुंज  रहा  आकाश

गगन में दिनकर के पीछे हिमकर चढ़ आया

सुख -शीतल  हो गया, शांत होकर सब ताप

तुम  क्यों  एकाकी  की  मंचवेदिकापर

संध्या की  कमल  सीबैठी  हो  उदास


क्या  तुमने  ऐसा  अपराध  किया  जो जीवन

कोने   से  उठकर ,आज  इतना  असीम  बना

किस  बिछुड़े  आलिंगन का पुलक स्पर्श तुम्हारे

उर को सता रहा,किसके लिए मरु मरीचिका सा

तुम्हारा नयन  ,   ताक रहा आकाश


किस   दुर्गमगिरिके  कंदराओं  में

डूब  गईं, तुम्हारे  जीवन की सारी आशाएँ

कहाँ  छुप  गया, मलयज  का वह हिलोर

जो  कभी, अनिल  पुलकित स्वर्णांचल का

लोल खोकर , तुमको छूने आया करता था

तुम्हारे त्वचा-जाल संग करता था किल्लोल




कौन  है वह तुम्हारा अपना, जिसके रूठ

जाने  के  भय  से  तुम मुख सीये झेल

रही हो,इतनी ज्वालाएँ,ताप और अभिशाप

कौन  भूल, शूल  सदृश साल रही तुम्हारे

उर को, जो तुम्हारा जीवन बना अभिशाप


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