सृष्टि
--- डा० श्रीमती तारा सिंह
जब सृष्टि का तात्पर्य है अशांति
तब व्यर्थ होगा, यह पूछने जाना
रक्त- मांस का मनुज , धरा पर
विविध दुर्बलताओं से क्यों है पीड़ित
रोग,शोक चिंता,व्यथा, चतुर्दिक क्यों
घेरे रहता ,कहाँ जा छुपी है शांति
क्यों तेरी जगती में प्रतिपल दुख की
आँधी , पीड़ा की लहरी उठती
निर्लज्ज माया ,नग्न हो ता-ता-थैय्या –
थैय्या कर,जीवन की अंतिम गान सुनाती
क्षुधित शीत का चीत्कार , कानों को
भेदता बार-बार, मानो देव कर से पीड़ित
विक्षुप्त प्राणियों से कह रहा हो
तोड़ सकते हो तो तोड़ो,भव बंध का द्वार
तुमको है इसका पूरा अधिकार
धरा मानव के साथ सृष्टि का
यह कैसा कुत्सित व्यवहार
पहले सृजन , फ़िर सींचन , बाद
खुद के हाथों कर देती संघार
आदमी का पाँव पड़ता नहीं जमीं पर
उसके पहले की धरी ,पीड़ सताने
खड़ा हो जाता,बनकर युग अंधकार
आदमी , जनम से विदा रात्रि के काल तक
अपनी आँखों में अश्रुजल लिये जीता
फ़िर भी मिटा नहीं पाता जीवन की प्यास
तुहिन कणों का मुकुट पहने ,आनंद बना
सुख-शैशव को यौवन से हिल्लोलित करना तो
चाहता , मगर असफ़ल रह जाता सब प्रयास0
उस पर अम्बर , घननाद बन
तट कूलों को गिराये चलता , कुसुम
वनों से होकर बह नहीं सकती सरिता
जग का शव,जीवन से जीवित हो नहीं पाता
धो नहीं पाता , मधुधारा में अपना गात
तब रूद्ध आहों का द्वार खोलकर
एकांत श्मशान में पहुँचकर मनाता
अपने नव जन्मों का त्योहार
कहता वृथा है यह मनुज संसार
इसमें नहीं कोई जीवन का सार
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