Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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स्वर्ग-सुख

 

स्वर्ग-सुख

     हरभजन, पिता हरिविलास के अचानक स्वर्ग सिधार जाने के बाद, वह बहुत अकेला हो गया था| वह भूखा-प्यासा, नंगे बदन, थकान से चूर, मानो बरसों से वीरानों में, आबादियों की ख़ाक छान रहा हो, तलवे काँटों से छलनी हुए शरीर में हड्डियाँ ही हड्डियाँ, अपने काँपते कदम को सँभाल न सका, और वहीँ सड़क के किनारे गंदे नाले के पास बैठकर सोचने लगा, ‘‘मनुष्य की चिता जलकर बुझ जाती है, माटी संग मिल एकाकार हो जाती है, लेकिन उसे चाहने वालों के दिलों में, वह उसके खून-मज्जे संग मिल धू-धूकर, तब तक जलता रहता है, जब तक साँसे रहती हैं, ऐसा क्यों? उसके मरे पिता की बुझी चिता, फिर से धधक उठी, जिसके आलोक में हरभजन के दिल का पवित्र भाव दमक उठा| चिता की लपटें उसके गले से लिपट गईं, वह फिर से एक बार पिता की चिता अग्नि में भस्म होने लगा| बह बेजान, बदहवास, वहाँ से उठा, और घर की ओर चलने लगा; ज्यों-ज्यों उसके कदम बढ़ रहे थे, उसकी हिम्मत बढ़ती चली जा रही थी| उसे लग रहा था, ‘‘आज मैं अकेला नहीं, संग मेरे पिता हैं, जो मुट्ठी भर राख मेरी हथेली पर रखकर कह रहे हैं, ‘हरभजन! यह जीवन बड़ा कीमती है, इससे कीमती और कुछ नहीं, इसे यूँ न मिटाओ| अपने पास हिम्मत लाओ| जानते हो, जिसके पास हिम्मत है, वह समय के ऊँचे से ऊँचे पहाड़ पर भी चढ़ जाता है| 

     हरभजन घर पहुँचा, तो देखा, ‘उसकी माँ एक मैली, फटी साड़ी पहनी, दरवाजे पर खड़ी, उसके आने की राह को हसरत भरी निगाह से ताक रही है| चेहरा शोक और चिंता में डूबा हुआ, वह लड़खड़ाती हुई, हरभजन के पास आई, और रोती हुई पूछी, ‘अब तक तू कहाँ था? बेटा! पति को तो मैं पहले ही खो चुकी हूँ, एक तुम्हारा संबल है, जिसके सहारे मैं जीने की हिम्मत जुटा रही हूँ तो, तू भी मुझसे दूर जाने की तैयारी करने लगा है| अरे! मैं तो तुम्हारे पिता के साथ ही चली गई होती, लेकिन स्वार्थ और कर्तव्य मुझे मरने नहीं दिया|

हरभजन व्यथित कंठ से मिमियाते हुए बोला, ‘माँ! मुझे माफ़ कर दो, आइन्दे ऐसा नहीं होगा|

माँ (यशोधरा), आँखों के आँसू पोंछकर बोली, ‘नालायक, आकाश में उड़ने वाले पक्षी को भी शाम होने पर, अपना बसेरा याद आता है, और वह अपने घोंसले में लौट आता है| मगर तू, इतनी रात गए कहाँ पड़ा रहता है? घर में एक विधवा माँ है, यह भी तू भूल जाता है| माँ की बात सुनकर हरभजन काँप उठा, उसके अंतस तल की गहराइयों में एक लहर सी उठी, उसे लगा, कि पिता के जाने के बाद, ऐसे ही माँ का जीवन टूटी हुई नौकाओं की भांति हो चुका है, उस पर मैं उसे इतना कष्ट दे रहा हूँ| क्या एक संतान का यही कर्तव्य है कि पिता के शोक में, जन्म देने वाली माँ को भूल जायें? हरभजन के सामने कठिन समस्या थी, आत्मा स्वर्गवासी पिता के रूह के साथ था, तो धर्म विधवा माँ के साथ; न ही वह पिता की याद को छोड़ सकता था, न ही मातृ प्रेम को| वह जानता था, धर्म का वेग ह्रदय को हिला देता है, तो यादें, हिलकोर कर रख देती हैं| सोचकर हरभजन की आँखें डबडबा आईं| सोचने लगा— ‘अनजाने में ही सही, जो मैं कर रहा हूँ, यह बूढी माँ पर एक प्रकार का अत्याचार है| मेरा पितृ प्यार और भक्ति, माँ पर बहुत अत्याचार किया, लेकिन अब से ऐसा नहीं होगा| अब से माँ को खुश रखने के लिए वह सब कुछ करूँगा, जो मुझे करना चाहिए’|

बेटे को गुमसुम बैठा देख माँ यशोधरा को, उसकी सरलता पर दया आ गई, उसने अपराधी भाव से मुस्कुराकर कहा, ‘तुम कल्पनाओं के संसार में रहते-रहते प्रत्यक्ष संसार से अलग हो गए हो| न स्नान, न खाना, न किसी से बातें करना; मैं कहती हूँ सरलता जरूर अच्छी चीज है, पर इसका अर्थ यह नहीं कि आदमी फूहड़ बन जाये| अब उठो भी, भोजन का समय निकला जा रहा है|

हरभजन को पहली बार इस कथन में कुछ सार जान पड़ा| विद्वजनों की भाँति उसे भी अपनी भूल को स्वीकार करने में विलम्ब न हुआ| वह बड़ी तेजी से उठा और एक गमछा लेकर कुएं पर स्नान करने चला गया| कुछ ही देर बाद जब लौटा, देखा, माँ खाना परोस रही है| वह झटपट २ गिलास पानी भर लाया, और माँ के साथ खाने बैठ गया| खाना खाते-खाते हरभजन ने माँ से पूछा, ‘माँ, प्राणी मन के भीतर कभी-कभी, किसी-किसी के लिए इतना आदर और सम्मान क्यों आ जाता है, कि उसके बिना जीवन निरर्थक लगने लगता है? 

यशोधरा बोली, ‘बेटा! यह एक प्रकार की क्षुधा है, यूँ कहो, आत्मविश्वास की मंजिल| हम सभी उस महान सत्ता के सूक्ष्मांश हैं, जो समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त है| अंश में पूर्ण के गुणों का होना लाजिमी है| हम इसे बुरा नहीं मानते, बुरा तो तब है, जब हम किसी के सामने सत्कार और पीछे उसकी उपेक्षा करते हैं| आस्था की भीत चट्टान की तरह अडिग होना चाहिए न कि बालू की दीवार की तरह कमजोर; जिसे जब जो चाहे गिरा दे| मगर इसका अर्थ यह नहीं होता, कि इसकी आढ़ में हम इस जगत को भूल जायें, जो प्रत्यक्ष हमारे सामने है|

     यशोधरा, नजर के सामने अपने बेटे को इस कदर पिता के वियोग में घुट-घुटकर जीता देख, किसी अनहोनी की कल्पना कर उसका प्राण सूखा जा रहा था, मगर उसमें खुलकर कहने की हिम्मत नहीं थी| उसने बड़े धीरज से कहा, ‘बेटा! मैं जानती हूँ, तुम्हारा ह्रदय अपने पिता के लिए कितना व्यथित है, मगर तुम्हारे पास अपने भावों को व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं है| क्यों तुम्हें बार-बार रोना आता है? क्यों तुम गुमसुम जहाँ-तहाँ बैठे, आते-जाते लोगों को टकटकी लगाए निहारते रहते हो? तुम जाने वालों में किसे ढूँढ़ते हो? बेटा! यूँ रो-रोकर अपने आँसुओं से जीवन की सूखी नदी को भरकर उसके चारों तरफ हरियाली नहीं लाई जा सकती| जानते हो, मेरी भी इच्छा होती है कि जहर पी लूँ| विधाता को संसार दयालु, दीनबंधु और न जाने क्या-क्या उपाधियाँ देता है, मैं कहती हूँ, उससे निर्दयी, निर्मम, निष्ठुर कोई शत्रु भी नहीं हो सकता| पूर्व जन्म का संस्कार केवल मन को समझाने की चीज है| जिस दंड का हेतु ही हमें न मालूम हो, उस दंड का मूल्य ही क्या? वह तो जबरदस्त की लाठी है, जो आघात करने के लिए कोई कारण गढ़ लेती है| अब हमारे इस निर्जन, काँटों भरे जीवन-प्रदेश में, दूर-दूर तक कहीं रोशनी नहीं है| इसलिए हमें तुम्हारे पिता की मृत्यु की दिव्य ज्योति के सहारे ही अकेले चलना होगा| जानते हो बेटा! ज्यों सागर के हिलोरों का अंत कहाँ होता है, ध्वनि कहाँ वायु भग्न हो जाती है; कोई नहीं जानता| ठीक उसी तरह, मानव जीवन उस हिलोर के सिवा, उस ध्वनि के सिवा और कुछ नहीं है| उसका अवसान भी उतना ही शांत, उतना ही अदृश्य हो, तो क्या आश्चर्य है| बेटा! मृत्यु, जीवन-यात्रा का एक विश्राम मात्र है, जहाँ यात्रा का अंत नहीं, नया उत्थान होता है| विराम और विश्राम से यह बुझाने वाला दीपक कुछ देर और प्रकाशमान रहता, कौन नहीं चाहता; लेकिन चाहने भर से कुछ नहीं होता| जलना-बुझना सब उसके हाथ है, हमारे हाथ कुछ नहीं|

      क्वार का महीना था| आकाश में जल शून्य मेघ के टुकड़े, इधर से उधर दौड़ -भाग कर रहे थे| हरभजन उन मेघ-खंडों की बौखलाहट को अपने अशांत मन से जोड़कर चिंतित हो उठा| उसे लगा, ये भी उसी के जैसा ही व्यथित भाग्य का मारा है, जो लाख जतन के बावजूद भी एक टुकड़े, दूसरे से मिल नहीं पा रहे| उसे आशंका हो रही थी कि यह सब दंड अपने पापों का फल है| मैंने भी कोई पाप किया है, जो मेरे पिता मुझसे बिछड़ गए; लेकिन पड़ोस के स्नेहीलाल को देखो, दूसरों का गला दबाकर, सुबह से शाम तक दुकानदारी के नाम पर, पैसे घर लाता है, उसे तो कोई दंड नहीं मिलता|

       सहसा हरभजन की मुद्रा तेज हो गई| उसकी बुझी हुई आँखें चमक उठीं, देह की नसें तन गईं| वह दौड़ता हुआ माँ के पास गया, और घिघियाते हुए बोला, ‘माँ! पिताजी का जीवन क्या, एक दीर्घ तपस्या ही तो था; दो जून की रोटी के लिए सुबह से शाम तक मुखिया के दरवाजे पर, लकड़ी चीरने के साथ-साथ अपना कलेजा फाड़ते रहते थे| अपने घर दीपक न जला पाने की चिंता में दूसरों के घर से आ रहे दीपक की धुंधली रोशनी में बैठकर ईश्वर को भजने वाले, मेरे पिता कभी सुख को नहीं देखे| क्या वे जो चाहते, तो स्नेहीलाल चाचा की तरह बेईमानी का पैसा कमाकर सुखी नहीं रहते, अवश्य रहते, लेकिन उन्होंने सदा ही ईमानदारी को अपने जीवन जीने का उद्देश्य माना| लेकिन मैं ऐसा नहीं करूँगा, सद्गुणों की चर्चा आत्मा को शांति तो पहुँचा सकती है, पेट की आग को नहीं बुझा सकती|

बेटे की इस बात से यशोधरा चिंतित हो बोली, ‘बेटा! तेरी मानसिक दुर्बलता तुमसे यह बोलाये जा रही है| तुम जाकर सो जाओ; सुबह इस पर बात करेंगे|

हरभजन अपनी मनोव्यथा के बोझ तले दबा, बिस्तर पर जाकर लेट गया; लेकिन उसकी आँखों में नींद कहाँ थी| वह साँस के साथ, चिंता के भीषण भार, जिसने आज छ: महीने से उसकी आत्मा को दबाकर रखा था| उसकी सारी मनोव्यथा, जो उसके भीतर ज्वाला बन, जल-जलाकर उसे भस्म किये जा रही थी| उसकी सारी दुर्बलता मानो आज उड़ गई, और वह एक भरपूर आत्मविश्वास लेकर खड़ा हो गया, मन ही मन कहा, ‘अब तक पैसा मुझे चकमा दिया है, अब उसे मैं दूँगा| यह सोचते ही उसकी आँखों में भाग्य से लड़ने का जितना नशा था, जिस्म में उतनी चपलता नहीं थी| ज्यों वियोगियों के मिलन की रात, बटोहियों के पहाड़ की रात होती है, त्यों रात इस विचार में कटी| सुबह उठा, किसी अपूर्ण साथ को अपने हिय में छिपाए हुए, वह घर से निरुद्देश्य दिशा की ओर चल पडा| ज्यों मृत्यु से पहले, मनुष्य मन की सारी इर्ष्या, सारा भेदभाव, सारा द्वेष नष्ट हो जाता है; त्यों उसने इस संसार से अपने सारे गिले-शिकवे भुला दिया, और अपने पिता की पुनरावृति श्रद्धा के सामने, अपनी साधों की स्मृति लिए, आँसुओं से धुले स्वच्छ मन को, अबरुद्ध कंठ से कहा, ‘मैं अपने अरमानों की समाधि पर तुमको और रोने नहीं दूँगा| माना कि पिता के बगैर मैं जीवित नहीं रह सकता, केवल तड़प सकता हूँ, लेकिन रोटी का अभाव तड़पन की आँधी में भी कम नहीं होता| तभी पीछे से किसी की ह्रदय विदारक आवाज आई, कोई उसे नाम लेकर रुकने की गुहार लगा रहा था| उसने मुड़कर देखा, ‘तो ठिठककर खड़ा हो गया, पास जाकर देखा तो, जिसे वह छाया समझ रहा था, वह उसकी माँ यशोधरा थी, जो पीछे-पीछे दौड़-दौड़कर हाँफ रही थी| माँ को देखकर हरभजन की आँखें आर्द्र हो गईं| हरभजन का मातृस्नेह जीवन-पथ के अँधेरे में मानो दीपक के सामान, उसकी चिंता-जर्जर आकृति को शोभा प्रदान करने लगी| उसने माँ के गले से लगकर महसूस किया, कि स्वर्ग-सुख और कहीं नहीं, इसी धरती पर है, और वह भी माँ के चरणों के नीचे| वह माँ के चरणों पर गिर पड़ा और बोला, ‘मेरी नालायकी ने तुम्हें बहुत दुःख दिया है, मुझे माफ़ कर दो| इस अक्षम्य अपराध की सजा मुझे ऊपरवाला क्या देगा, यह तो नहीं मालूम, लेकिन माँ के कदमों के नीचे जन्नत है, यह आज हुआ मालूम|

 

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