तपस्वी
--- डा० तारा सिंह,नवी मुम्बई
कहते हैं ,जब यह दुनिया बनी
उसके पहले से ही ,यहाँ की
तृण- तरु, जंतु रहित, मिट्टी के
कण- कण में, मनुज प्राण को
जकड़ने दुख-विपदाएँ थीं दौड़ रही
जिससे विस्मित होकर,भावी मौन
छायाएँ, कँप-कँपकर थीं काँप रही
चतुर्दिक था मरघट का सूनापन
पसरा हुआ, अम्बर के रंध्र-रंध्र से
अग्नि की बारिस थी हो रही
प्रति चरण अँगारे थे दहक रहे
हवा की साँसों में थी दर्द भरी
उफ़नते सिंधु ,गरजते अंधड़ छोड़कर
अपना निभृत निवास अम्बर
जीवन श्रांत पथिक सा दौड़ रहा था
जिससे उसके दुर्धर पदचापों से
धरती की छाती थी फ़टी जा रही
मनुज ने सहसा, जब अपनी आँखें खोली
उसका अंतर दर्प सा चूर्ण हो गया, देखा
उसकी छाती असंतोष भार से है दबी जा रही
अधरों में नीरव रोदन है, भरा जा रहा
प्रकृति ने तो अपनी मूल शक्ति का भार
मनुज को तो सौंप दिया, मगर मनुज की
खुद की एक साँस अपनी नहीं
प्रकृति ,एक बार ना पूछी आकर ,मनुज तुम
क्या, नियति का दास बनकर जीना चाहते या
खुद बनकर रहना चाहते अपना स्वामी
केवल स्वर्ग से उतारकर धरती पर पटक दिया
जिससे भूतों के इस विराट भव में, मृत्यु सदॄश
शीतल निराश का अनुभव करता रहे
तनिक भी न हिले, जब मनुज चर्म को
टाँक रही हो अपनी सूई से , निष्ठुर प्रकृति
गम के चट्टानों के नीचे दबा मनुज
अपने मन -प्राण का आक्रमण कर
जीवन की मधुभूमि को त्याग
धूम,थकावट,कोलाहल से दूर,मिले जहाँ
मन को विश्राम,रह सकूँ जहाँ स्वयं में
लीन, गुहा-कंदराओं में रहने चला गया
कहा,जब दुर्लभ सुख-भार को उठा सकता नहीं
दाह्यमय जीवन की यातनाओं को सहूँगा कैसे
इसलिए, तरंगित यौवन का रसवाह लिये
रहने वन में चला आया,जिससे कि जान सकूँ
जवानी की चिता-ज्योति में,मृत्यु है कहाँ छिपी
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