तारों में रहती मेघों की प्यास
निज साँस की गर्म उसास से, पिघल-
पिघलकर मिटता जा रहा मानव तन
सोचता , अग्निपथ के उस पार
स्वर्ण मृगों का है गंध विहार
मगर इस पार, तारों में छिपकर
रहती, अतृप्त मेघों की प्यास
जो मनुज जीवन के जड़ शून्य का
हर क्षण उड़ाती रहती उपहास
जिससे मन के स्वर्गिक भावों का
बिखर जाता, स्वर्गिक वैभव
हृदय से हृदय को मिलाकर
अभिन्न बनाना होता नहीं संभव
स्वार्थ - लोभ के पैने पंजे, मानव
मुख को नोच-नोचकर, रक्तसिक्त कर
मन के भीतर के पट को बदलने बाध्य
करता , जिससे भव मानव का
मिलन-तीर्थ यह धरती, रक्तचण्डी का
बनती जा रही है , रौरव
तृष्णा कहती,अगर सचमुच देखना चाहते
तुम अपनी सभी इंद्रियों को संतुष्ट
तो सबसे पहले, सभ्यता की आग को
कुचलो, रिश्ते के दीपक की लौ को तोड़ो
बना लो अपना एक अलग आकाश
तुम्हारी आँखों को जो दीख रहा
ताम्रपत्र के नीचे झूलते चांद –तारे
ये सभी जीते वहाँ, बीमार, उदास
भला ऐसे में कैसे हिल सकता है
मनुज मन की साँसों का कोमल तरुपात
ऐसे भी ,अब आदमी के प्राण के भीतर
जलती कहाँ वो आग, जो अपना सब
कुछ खोकर भी,अगम वैविध्य को संभाले
भावनाओं का बनाये ,एक नया समाज
जिससे अनेकता की एकता में रहकर
घटता रहे मनुज मन का पशुबल
लाल, हरे - पीले पत्रों से बनते ज्यों
पेड़ों के सुंदर लिबास,त्यों प्रभृति सुमनों का
स्वर्गिक सौरभ भरता रहे प्राणों में सुवास
मुझे लगता, ईश्वर की तरफ़ से अगर मनुज
जीवनोपाय का समुचित वितरण हुआ होता
तब स्वत: ही मनुज सामाजिक संतुलन ग्रहण
कर लेता, टल जाता भू व्यापी रक्तपात
मिट जाते, खंडित भू जीवन के विरोध सब
मूक प्राणों की जड़िमा- शोभा, भू रज में
लोट लिपट,प्ररोहित करता जीवन का नव भाव
तब हिल्लोल लोल, उमड़ती नहीं छूने आकाश
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